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Tuesday, May 8, 2018

का चाही --- का मिल रहल बा ?


का जमाना आ गयो भाया, संस्कार आ इंसानियत बुझता देश छोड़ कतौ पराय गइल बाटे । अब त भोरे भोरे अखबारो देखे मे डर लागता । रोजे 2-4 गो कवनो न कवनो अइसन खबर देखा जात बाड़ी सन , जवने से रोवाँ झरझरा जाता । आँख लोरा जात बा । आजु के समाज से घिन होखे लागत बा । बिसवास के बात साँचो बेमानी हो गइल बाटे । का माई , का बाबू , का हित – नात केकरो पर बिसवास करे जोग ना रह गइल बा । जवने समाज मे जब अपने माई-बाबू जब अपने बिटिया के अस्मत के सौदा करे लागल बा, त दोसरा पर कइसन बिसवास ? जहवाँ महतारी लोग अपने अपने बेटी – बहू के इज्जत खाति जान दे देत रहे, उहवों आज कुछो कहे लायक बाचल नइखे । समाज हर दिन गरत मे जा रहल बा । केहरो असरा के कवनो किरिन नइखे देखात । समाज , देश , राजनीति , राजनेता सभे आदमियत भुला गइल बाड़े । का राजा , का परजा केकरा के दोष दीहल जाव । मनई आज खाली आ खाली पइसा के भूख से बेकल बा , ओकरा खाति कुछों करे मे, केतनों गरत मे गिरे मे ओकरा कवनो शरम नइखे । राजनीति करे वाला लोग त अंगरेजन के नीति पर चल रहल बाटें , “बाटों और राज करो” आ सभे के अझुरा के राखे मे उनके उनकर राजनीति के दोकान चलत देखात बा । उ लोग इहे करे मे दिन रात लागल बा । जात - पात , धरम के लड़ाई अपने चरम पर बा । 

            समाज आउर मनई के सोच केतना गिर चुकल बा , एकरा कहे ,सुने मे शरम लगता । एह सब खाति अलग अलग लोग अलग अलग तरह से परिभाषा गढ़ रहल बाड़ें । बाकि खाली परिभाषा गढ़ लिहले से भा एकर दोष केहू दोसरा पर लगा दीहले से त समाज के ई बुराई दूर ना होखी । आजू के जरूरत ई बाटे कि समाज से , देश से ई बुराई दूर होखों । समाज के ई भाग अपना के मजबूर ना सुरक्षित महसूस करे । बेगर मेहरारून के ई सृष्टि के कल्पनों ना कइल जा सकेले । अइसना मे सभ्य आ सुरक्षित समाज के बात बेमानी बा । वेदकाल से विआह के बेरा एगो असीस दियात रहे , जवन वेद मे लिखलो बा –

“दशाश्याम पुत्राना देहि,पति मेकमेकादशम कुधि”

      जवन लइकी अपने जिनगी मे अपने संतान के संगही अपने खनिहार के माई के भूमिका मे आवे असीस के संगे आपन जिनगी शुरू करेले, ओकरा प्रति समाज काहें एतना निष्ठुर हो जाला , सोच के विषय बा । ओह आधी आबादी के संगे समाज एतना निरदई हो गइल बा, ओकरे सम्मान के एतना बाउर बना रहल बा , जवने से आज पूरा समाज के मुड़ी नीचे हो गइल बा । कठुआ मे जवन कुछ भइल भा उन्नाव मे  - चिंता के बात त ई बा कि एह तरह के कुकरम आ जघिन अपराध के कुछ लोग आ मीडिया के एगो खास हिस्सा साम्प्रदायिक रंग देवे में लागल बा। आपन राजनीतिक रोटी सेंके मे लोग समाज के कवने ओरी लेके जा रहल बा, उहो लोग के एकर पता नइखे । अब त हमरा संस्कृत के ई उक्ति गलत बुझाले –

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”

      इहाँ त देवता लोग के झाँको ना आवत बा । इहाँ त “रमन्ते सर्वत्र राक्षसा” देखाई दे रहल बाड़े । आज कतौ केहू महिला लोग खाति सनमान भूलियो के देखावत होखी कि ना , सोचे के पड़ी ।

      समाज मे कई गो विचार धारा हरमेसा रहेनी सन, अजुवों बा । समाज क रूप काहें भइल, ई विचार के जोग बात बाटे । समय समय विमर्श होत रहे के चाही, उ हो रहल बा । नारी आंदोलन , नारी मुक्ति , नारी विमर्श अइसन कइगों नांव हो सकेला भा होबो करी । बाकि एह सब के मतलब सब अपना हिसाब से लगावत आ रहल बा , अपना हिसाब से परिभाषों गढ़ले बा भा अजुवों गढ़ रहल बा । कवनो एगो कारन ना दीहल जा सकेला एह स्थिति खाति । ढेर कारन बाटे जवन आज समाज के एह स्थिति मे लिया के छोड़ देले बा । आधुनिकता, स्वतन्त्रता , मुक्ति , फिलिम, टीवी,खुलापन, एकाकी परिवार, धन लिप्सा , भोग के प्रवित्ति , अवसाद आउर बहुत कुछ सभे के सोचे के मजबूर क रहल बा ।

            कबों-कबों त ई लागेला कि समाज मे फेर से आदिम प्रवृत्ति काहें ? कहीं ई कुल्हि अनुशासन के कमी के कारन त नइखे ? बाकि अनुशासन के मतलब इहाँ केकरो बंधुवा बना के राखे से नइखे । इहाँ अनुशासन के मतलब सामाजिक ताना – बाना के हिसाब से चलला के बा । का अब एकरो के माने मे कवनो समस्या बा ? मानवतावादी लोगन के हो सकेला बाकि होखे के चाही का ? नारी मुक्ति के संचालकन के हो सकेला बाकि होखे के चाही का ? हमरा अभिओ ले ना बुझाइल कि नारी के मुक्ति केकरा से , पिता से , पुत्र से भा पति से ? कई गो विचारक लोग नारी मुक्ति के मतलब ई बतावेला कि नारी के अपने मन आ देह पर नारी के ही अधिकार होखे के चाही । ठीक ह , होखे के चाही बाकि कहीं ई सोच नारी सत्ता भा पुरुष सत्ता के विनाश के ओरी समाज के ढकेले के कवनो जोजना त नइखे ? कवनो दोसर सभ्यता भारतीय सभ्यता मे जहर त बिखेरे मे ना लगल बा ? कवनो स्वतन्त्रता के मतलब ई होला कि ओहसे दोसरा के स्वतन्त्रता प्रभावित न होखे । बाकि इहाँ सभे के खाली अपने स्वतन्त्रता से मतलब बा, जवना के नीमन त ना कहल जा सकेला ।

      हमरा त ई लागेला कि आज जरूरत ई बा कि पहिले के तरे जइसे कवनो गाँव मे केकरो घरे केहू के लइकी के बिआह होखे, उ ओह गाँव के सभेके बेटी आ बहिन के बिआह बुझाव । सभे एक्के ऊर्जा से ओकरा के निभावे मे लाग जाय । चच्चा , कक्का , दद्दा नीयर नाता जात धरम से परे रहल । गाँव के लइकी भर भर गाँव के बहिन, बेटी रहस । मतलब ई कि समाज के ओही ताना बाना के फेर से जियावे के आज जरूरत बुझात बाटे । एक घरे के बुढ़वा के डर गाँव भर मानत रहे , आँखि मे सरम रहे । कवनो घरे के बड़ केहू के लइका भा लइकी के बाउर होत देख ना सके, ओकरा समझावे , डांटे , फटकारे से ना झिझके । अपनत्व के पराकाष्ठा के सब बुझे आ निभावे । कवनो बिअहुता लइकी के गाँव मे ओकरे नइहर से केहू आ जाव, त ओह लइकी के उ अपने बाप – भाई नीयर प्रिय लागे । नेह छोह के ओही गठरी के आजो पहिले से जादा जरूरत बा । दादा – दादी भा नाना – नानी वाले संस्कार के जरूरत बा । कहे के मतलब ई कि फेर से सौ दुख सहलों पड़े , त ओकरा के भुला के फेर से संयुक्त परिवार के जरूरत बा । आज नाही त काल्ह एकरा के अपनावही मे समाज के भला बा ।   

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी  
          
       

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