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Wednesday, October 20, 2021

मन के राग

 

कवनो देश के जातीय भावना के पहिचान उहाँ के लोक संस्कृति होले। लोक जीवने जातीय जिनगी के मूल सोत होला। एह सोत से निकसे वाली धारा समय के बदलाव के अपना भीतरि जोगावत आ समुआवत चलत रहेले। ई प्रान धारा चलला का बादो नीमन रहेले। बदलाव का बादो ओकर पहिचान ना बदलेले। लोकगीत लोक संस्कृति के जियतार सुर के संगम होखेला। लोक के विशेषता अपना संपूर्णता का संगे एह पारंपरिक लोकगीतन के जेकरे रचयितन के पता नइखे, के मन के राग में मिल के सुन्नर कंठन से मधुर सुर में सुनात रहेले।

            अनघा भाव के थाती से भरल-पूरल हमनी के जिनगी के सभेले पुख्ता पहिचान एह गीतन का सोझा अपना के बचावे क बीपत घहराइल बा। मने लोकगीतन के गवें-गवें बिलाए के समय नियरा गइल बा। भा कहल जाव कि लोकगीत गवें-गवें बिला रहल बानी। एकरा पाछे कई गो कारन बा। सेतिहा फिलमी सोच, छेहर भाव आउर अश्लील गीत-गवनई हमनी के सांस्कृतिक धरोहर एह लोकगीतन के बहुते बाउर ढंग से प्रभावित कइले बा। एकर असर नवही पीढ़ी आ अदमिन से बेसी मेहरारून पर भइल बा। ई ढेर चिन्ता के बाति बा। काहें से कि मेहरारून के अपना संस्कृति से गहिर लगाव होला। बियाह,बरत,पूजा के बेरा गाये जाये वाली गीतन में अब पारंपरिक गीतन के जगहा फिलमी तरज के गीत-गवनई शुरू हो गइल बा। जवन हियरा के बेधेले।    

            एह बाति के सोझा राखत बेरा नवके क बिरोध आ पुरनके क तरफदारी नइखे करत। नवका के सोवागत करे खाति हम तइयार बानी बाकि ओकर झोंका हमनी क दीयरी बुतावे खाति अड़ियाइल होखे त अइसना में हमार का गलती बा। अइसना में सोवागत करीं त कइसे करीं? नवके दियरी के नवकी जोत से ?नवकी जोत खाति दियरी में नया तेल आ नई बाती चाही। अगर नीमन आ भरल-पूरल चीजु लेके नवकी जोत आ रहल बा त ओकर सोवागत बा आ ना त बरिजे खाति हम विवश बानी। इहाँ त ई हाल बा कि नवकी जोत पुरनका तेल सोखि के आ बाती के जार के हमरा भरमावे ला तइयार बा। तेल ना होखी त बाती जरिये नु जाई । भइया ! हम दसो नोह जोरि के क़हत बानी कि अइसन बिलवावन चमक आ जोत हमरा ना चाही।

            उठस सुर, लय आउर ताल आ अश्लील गवनई हिया के भइबे ना करी। जब हिया के नीमने ना लागी त सब बेकार। आचार्य शुक्ल कविता के भाव के सभेले ऊंच पिढ़ई पर बइठवले बाड़न। फेर एकरा के छोड़िके हम मुरदाह से अपना के कइसे जोड़ीं।

            हमनी के पारंपरिक गीतन में लोक-भाव के लमहर थाती भरल बा, उहे जिनगी के खजाना ह। एह दुनियाँ के मजगर धरोहर ह। जवन जिनगी के धड़कन के आहट देत सभे से कटल आ बेगर कहले सभे कुछ बोल जाला।

            आईं सभे ! एह रस भरल समुन्दर के एक चुरुवा जल पी के गर तर कइल जाव। देखीं, का भेंटाला ! कुछ हुलास,कुछ थिरकन भा कंपकपी भा कुछ उठ्ठस भा दुख-तकलीफ भा कुछो आउर...! थोर ढेर तकलीफ़ो होखे, त माफ करेम-

            दुख सहि के सुख पवला के बिसवास के संगे।

                        एगो कहनी कहे जातानी, जवन कहलो बा आ नाहियों कहल बा। हम जानतानी कि कल्पना सिरजना खाति जरूरी होला। बेगर कल्पना के सिरजना होइये ना सकेले। अगर रउवा मानी त हम कहेम कि कल्पना कवनो बाउर चीजु नइखे। उ बिना आधार के ना हो सकेले। जथारथ के चाह कल्पना के बिरोधी ना बलुक सहजोगी होला। बेगर कल्पना के मनई के जिनगी संभव नइखे। चलीं, एकरा छोड़ीं, फेर कबों समुझल जाई, त अब हम कहनी कहे जा रहल बानी।

            भइया ! एगो गाँव में एगो बोधन बाबा रहत रहलें। बोधन बाबा के एगो दुलरूई कनिया रहे, जवना के नाँव पान कुँवर रहे। पान कुँवर बहुते सुघर-साघर आ शीलवती कनिया रहलीं। उनुके सुघरई के जे देखे उ देखते रह जाय आ उनुके सुघरई के बखान करत बेर जरिकों न अघाय। पान कुँवर अपने बाबा के बहुते दुलरुई रहलीं। उनुका सुघरई पर उनुका बाबा बखान करत कहें-

'पनवा के नाई पातरि सोपरिया अस ढुरहुर हरदी अइसन पीयरि हो।'  

            अब तनिका पान के बारे मों सोचीं-कतना रसगर,मनहर आ पारदर्शी होला। अइसने उनुका शरीर के बनावट रहे। कवि के संतोष ना भइल त आगु लिखलें सोपारी लेखा चिक्कन आउर रंग हरदी लेखा पीयर, टहक।  ई कवनों कवि के कल्पना हो सकेले बाकि उनुका सुघरई रहल अइसने। पान कुँवर  गवें-गवें बड़ होखे लगली। ओइसही उनुकर सुघरई आउर निखरे लागल। एक त सुघ्घर ओपर से जवानी के  देहरी पर डेग धरत बेटी के देखि के कवनों बाप के नीन उड़ी जाले।

            बोधन बाबा पान कुँवर खाति बर ढूढ़ें लगलें। भाग- दउड़ के बियाह तय क दीहले। दिन नियरात-नियरात लगे आ गइल। बियाह के विधि-बिधान हरदी आ माड़ो के संगे होला। मने मड़वा के संगही कनिया के अपनही घर में पिया के घरे जाये के अभ्यास करावल जाला। जब पान कुँवर के घरे मड़वा छवाये लागल, ओह घरी पान कुँवर के मन के भाव कवि उनुका बाबा का सोझा रखले बाड़ें। ओह घरी मेहरारू लोग गावेलीं-

झाँझर मड़उवा जिन छवइहा मोरे बाबा,कि लाग जइहें सुरुजू  कइ जोत।

            ई गीत उहाँ छवात माड़ो से बेसी पान कुँवर के जिनगी के चिंता के बखान करि रहल बा। पान कुँवर सगरी कनिया लोगन के प्रतिनिधि का रूप में उहाँ बाड़ी। पान कुँवर अपने बाबा से आश्वासन चाहत बाड़ी कि उनुके दुलरूई बिटिया के ससुरे में तनिको सा दुख-तकलीफ न होखे। बाबा उनुके मन के भाव बूझ जात बाड़ें आ अपने बिटिया के आस धरावत  कहतारें- 

'कहतू तs ये बेटी तमूवाँ तनवती, सुरुजू के करतीं अलोप।'        

            ए बेटी! अइसन जनि कहs। तू कहबू त हम अइसन तम्मू तनवा देम जवना से सुरूज़ ढ़का जइहें। मने अइसन मजगुत घर तहरा हम देम जवने के नियरे कवनो दुख-तकलीफ चहुंपबे ना करी। वैज्ञानिक लो के बुद्धि एकरा दंभ आ विद्वान लो एकरा झूठिया क आस बोली आ बस के बहरा के बाति बताई। बाकि अइसन बाति नइखे,अपना औकात से ढेर आगे बढ़िके केकरो ला सुरक्षा के आस बन्हावल मुरुखई ना बलुक गहिराह परेम के बाति होले। अइसना में कवनो बाप अपने दुलरूई बेटी खाति का-का ना सोच सकेला। चाहे जइसे होखे, अपना दुलरूई बेटी के आस बन्हइबे करी। अइसन ना कइला पर उनुकर कुल्हि तपस्या बिरथा नु हो जाई।

            अइसने आस बन्हावे वाले सुख के परिखे में ना जाने कतने बरिस से घूमी रहल बाड़ें। अपना बिटिया के जोग दुलहा खोजे खाति कहवाँ-कहवाँ के धूर नाही छनलें। उ जात रहलें आ लउट के खलिहा चलि आवत रहलें। हर बेर अइसने होत रहे , थकला का बाद उनुका लागत रहे कि उनुकर बेटी कुँवारे रहि जाई।

            'पूरुब में खोजली बेटी पछिम में खोजली

                        खोजि अइली देस संसार।

            तोहरे सरीखे बेटी वर नाही पवली,

                        अब बेटी रहि जइहें कुँवार।'

                                    इहवाँ सरीखे सबद विचार करे जोग बा। वर त हर गाँव में बाड़ें, गाँव के घर-घर में बाड़ें। बाकि पान कुँवर के जोग वर कहीं नइखे मिल पावत। कतों घर बा त वर नइखे आ कतों वर बा त घर नइखे। बाबा के मन के भावते नइखे, त कइसे तइयार होखें। सुन्नर घर आ वर बाड़ें, इनको कमी नइखे। बाकि उहाँ चहुंपे खाति बाबा के समरथ नइखे। थाकल बाप के लागता कि उनुकर बेटी कुँवारे रहि जाई। ई गीत अजुवो के लइकिन के बाबूजी लो के मजबूरी आ उनुका लो के मन के टीस के एकदम नीमन से उकेर रहल बा।

            बेटियो भारत के रहनिहार बिया। संस्कार से भरल-पूरल आ आतमा के आवाज सुने वाली। उ अपने बाबूजी के पीर बूझ गइल। उ आपन जिनगी दाँव पर लगा सकेले। उ अपना के मेटा के दोसरा के खुस राखे वाली भावना से अपने करेजा पर पाथर राखि के बाबा के दुख हर लेवेले। अपना बुद्धि से अपने बाबा के राह असान बना देवेले। अपने बाबा के सोझा आपन विचार राख़ देवेले-

            "साँवर वर देखि जिनि भरमा बाबा,

                        साँवर सिरी भगवान । "

                        ए बाबा ! तूँ साँवर वर  देखि के ओकरा के हमरा जोग नइखे,अइसन सोचि के भरम में मति पड़ा। साँवर होखल कउनों बाउर बाति नइखे, साँवर त भगवान सिरी क्रिसनों  रहलें। अब बताईं,आपन बलिदान देके, अपना के दुख चहुंपा के दोसरा के सुख चहुंपावे वाली भावना आउर कतों भेंटाई?

            त केनहूँ  बाति बन गइल। आगु क हाल ढेर अझुराइल बा-

                        जब बेटी ससुरे जाये लागेले, त माई बाबूजी के करेजा फाटे लागेला। गलानी,छोभ,करुना मतिन भाव से मन भरि जाला। कंठ रुन्हा जाला। इहाँ खुसी आउर दुख दूनों बा। बाकि अपना आँखि के पुतरी से बिछोह नाही सहाला आ माई-बाबूजी लो बउराह लेखा हो जाला आ फेर ओरहनों देला लो-

 

'खोनवन-खोनवन बेटी दुधवा पिअउली

            दहिया खिअउली साढ़ीवाल ।

कोरवाँ से कबों नाही भुइयाँ उतरली

            रखली मs अँखिया के छाँव।

एकहु नुकुति नाही मनलू मोरि बेटी

            लगलू  सुन्नर वर साथ। "

                       

            देखीं नु,कतना बड़ अझुरहट बा। 'अर्थो हि कन्या परकीयमेव' सभे जानेला। तबो हिया पर बुद्धि के सासन ना चल पावेला। बेटी वर का संगे खुस होलीं। बाकि माई-बाबूजी खुसी का संगे गहिराह दुख  के समुंदर में डूबत-उतिरात रहेला। अइसना में केकरो बुद्धि मरा जाले। कालीदास के एह दुख के अनेसा रहल। काश! कालीदास ई दुख भोगले रहतें त सभे बाबूजी लोगन के पीर के बानी मिल गइल होइत। बाकि पान कुँवर के ई कहनी हर कुँवरि के कहनी बा। आउर बोधन बाबा सभे के बाबा के प्रतिनिधि बाड़न। भाव के अइसन गहिराह पसराव केकरो संवेदना के जगा देवेले। एहसे बढि के जियतार आउर भाव का हो सकेला?

            ई जवन कहनी हम कहनी ह, ई त एगो छोटहन परतोख भर ह। रउरा सभे के समरथ भाषा में गहिराह संवेदना से जुड़ल कतने कहनी गाँव के चप्पा चप्पा पर भेंटा जाई। प्रेम उन्माद के,विरह के अगिन के, बसंत के हुलास के , रिमझिम बारीस में ठाट से मेंहदी से सिंगार के, अतने ना जाड़ में किकुरत बुढ़िया ईया के, जेठ के तातल गरमी में झंउसात बूढ़ बाप के,कुँवार बहिन के सपनात शील के,बाझिन के बेकहल दरद के, हत्या आउर आत्महत्या का बीच झूलत,जीयत-मुअत किरसित असहाय के। मने जिनगी के हर हाल के, हर पल के बतकही के । इहाँ न रउवा ई कुल्हि सुने के साहस जुटा सकेनी, ना हमरा अतना कुल्हि सुनावे समरथ बा। हम त रउवा सभे के एहर के एगो रहता भर देखवनी ह। हमारा बिसवास बाटे की रउवा उहाँ जरूर जाएम। उहाँ रउरा के पूरा ना त  आधा-तीहा जीयत जागत लो जरूर मिलिहें।

'' एह जम्म ठिग्गाह गयउजिहि सिर खग्ग न भग्गु

तिख्खा तुरिय न तोरिया गोरी गले न लग्गु॥"

            हम देखले बानी एह उपजाऊ भूई से जामल एह लोकगीतन के मिठास लब्ध प्रतिष्ठ कवि लो के आ रसिक लो के अपना ओर जबरी खींच ले आवेले। सुन्नर मेहरारू आ लइकिन के कंठ से निकरे वाली सुर लहरी से लागता उ लो के हिया के राग क राधिका उपरिया जालीं। एही से जयदेव कहले बाड़ें-

 

रति सुखसारे गतमभिसारे मदन मनोहर वेशम।

न कुरु नितम्बिनी गमन बिलम्बिनी मनुसरते हृदयेशम'

धीर समीरे यमुना तीरे  बसति बने बनमाली

गोपी पीन पयोधर मर्दन चंचल कर युगशाली।

 

 

मूल रचना- मानस राग

विधा- निबंध

मूल रचनाकार - डॉ उमेश प्रसाद सिंह

भोजपुरी भावानुवाद - जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

 

Friday, April 9, 2021

का पकड़ीं ...का छोड़ीं

 

का जमाना आ गयो भाया,गियान के गँउखा के बेवस्था पर लोग ढीठ होके अंगुरी उठा रहल बाड़ें।अंगुरी उठावे वाला लोगन के भीतरि जरिको हिचिक नइखे। मरजाद के बात बेमानी हो चुकल बा। छींटाकसी के बाति मति सुनी भा सुनाईं। भाषा के परिभाषा देवार में आपन मुँह रगरि-रगरि के घवाहिल हो चुकल बिया। ओहपे अलंकार आ व्याकरण के मरहम कामे नइखे करत। गहिर घाव पर मरहम कामो ना करसु। ई जरि-मनी छिलाइल-छिछोहाइल जगहा ला होखेला। गहिर घावन में त ललकी दवाई में डूबावल लम्मी-लम्मी बत्ती डारल जाला आ उहो घाव भराये में लम्मे समयो लेला। कहल त इहो जाला कि समय बड़ से बड़ घाव के भर देला। बाकि कुछ लो अइसनों भेंटाला जे अपने घावन के कुरेद-कुरेद के जियतार राखेला आ ओकर दरद महसूसत रहेला। अइसना में मन के भीतरि परल गाँठ सुखात नाही बलुक लोग ओकरा के जोगा के राखेला आ रहि-रहि के ओकरा खाद-पानी देत-लेत रहेला। थोर-ढेर गियान लेके कुल्हे जीवा-जन्तु एह धरती पर जामेला आ सभेले जियादा बुद्धि-गियान के मतरा मनई लो में होला। ई मनई लो अपना समय पर देश आ समाज खाति नीक-बाउर सउंपबो करेला। ओह सउंपलका के अलग-अलग लो अलग-अलग नजर से देखेला आ अलग-अलग बतकुचन करत देखा जाला। अइसन कुल्हि बतकुचन के बखान कतना बयान करे जोग होला, ओकरा के ओह लोगन के बुद्धि-गियान पर छोड़ीं।

            समय त उहो रहे जब एक के दुख-लकलीफ में सगरी गाँव जुट जात रहे। एक के इजत पूरे गाँव के इजत मानल जात रहे। गाँव के कवनो लइकी के बियाह में सगरी गाँव अइसे जुटत रहे, जइसे उ लइकिया ओकर आपने लइकी होखे।साँचो में लोग एकरा के जीयत रहे। चउवन के चारा देवे के आपन सौभाग्य मानत रहे। जुआ में बैलन के नधले अपना बघार ओर जात किसान के घर-परिवार के संगही देश-समाज के चिंतो रहे। भलही उ किसान छान्ही-छप्पर में जिनगी बितावत रहे बाकि धूर-माटी में खेले वाला लइकन में देश के भविष्य देखत रहे। ढेर उल्लास के संगे देश के सेवा में अपने करेजा के टुकड़ा के सहजे नेवछावर करे में जरिको देर ना लगावत रहे। एहु घरी कुछ किसान लोग बाडर पर बइठ के सोझबग मनई लो के नोकसानों पहुंचावे में देर नइखे लगावत। देश के मरजाद के बाति त करबे मति करीं। कुछ मुट्ठी भर लो देश के सम्मान के धूर में मिलावे खाति अकुताइल देखाता।आगि में घीव डारे कुछ नामचीनो लो अपना जोगाड़ में चहुंप के बात के बतंगड़ बना रहल बा। खेत में कोड़त-कमात लो किसान ह कि महँग-महँग गाड़ी में डोलत लो किसान ह कि जवन करज में डूबत आपन जान दे देत ह, उ किसान ह। एकरो निर्णय के कुछ तथाकथित गियान बघारे वाला लोगन पर छोड़ीं। 

            कबों धरम मनई के जिनगी के नीमन से आ जोगा के चलावत रहे। ओकरा के संस्कारित करत रहे। बाकि आजु अइसन होत कतों देखाते नइखे। लोग अपना फयदा का हिसाब से धरम के परिभासित कर रहल बा,ओकरा देश आ समाज खाति सोचे के फुरसत नइखे।धरम के आजु चुनाव लड़े आ जीते के हथियार बना लीहल गइल बा। एह में सभे सउनाइल बा। धरम आ राजनीति के घालमेल बस बउरपन ला हो रहल बा। कब केकरा के बाहरी आ केकरा के भीतरी कहे लागी लो,रउरो के ना बुझाई। एक देश के भीतरि कतना आउर देश ह,ई जानल सोच के बहरा के बाति हो गइल बा। जब ई बाति बुद्धिजीवी लो के मान के लोहा नइखे रह गइल त मनराखन पांडे भा भुंवरी काकी के कहवाँ से पल्ले पड़ी। एह लोगिन के पल्ले पड़लो  से कवनों फ़ायदा होखी, एह में सभे के लेखा हमरो संदेह बा। काहें से कि भुंवरी काकी के इहाँ के धरम आ संस्कार बुझइबे ना करे आ मनराखन हर घरी सुल्फा पी के मस्त रहेलें। कहाँ का बोले के चाही, उनुका के इहे ना बुझाला, फेर सोच-विचार करे के काम उनुका से कइसे होखी। हमनी सभन के का पकड़े के बा आ का छोड़े के बा,एही सोच का संगे मगज़मारी करत रहे के बा।हम त एह मगज़मारी में अझुराइल बानी,रउवा अपनों ला कुछ नीक-बाउर सोचबे करब,ई हमरा बिसवास बा।अपना एही बिसवास का संगे रउवा सभे के छोड़ रहल बानी। फेरु हलिए मिलल जाई।      

 

जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता       

Friday, March 12, 2021

खेला होबे कि खेला खतम.....?

 

का जमाना आ गयो भाया, एह घरी अलग-अलग जगह पर अलग-अलग 'खेला होबे' के कहानी चल रहल बा। बाडर पर एगो अलगे खिस्सा नधाइल बा। किसान के माने मतलब लोग अइसन बना देले बा कि सभे के मन अउजा गइल बा। लोगन के बुझाते नइखे कि असली किसान के बा आ के नइखे। सोचनिहार लोग कई फाँक में बंटा गइल बा। कुछ लोग जायज आ नाजायज के पहाड़ा पढ़ रहल बा। देश के मान-सनमान ताख पर राख़ के कुछ लोग आपन-आपन दोकान खोल के भोंपू बजा रहल बा। कुछ लोग उहाँ अइसनो बा जे सोझा लउकत चिजुइयन का ओर से आँख घुमा के ओकरा उपस्थिति के नकारे में जरिकों हिचकिचात नइखे। तीन गो कानून के लेके जतने मुँह ओतने बात। कुछ लोग ओकरा बाउर बता रहल बा आ कुछ लोग नीमन। सभे अपने नजरिया के सही ठहरा रहल बा। 'ठेका पर खेती', ई त कवनो नई बात नइखे। पहिलहुं होत रहे आ  अजुवो हो रहल बा। बाकि केहु के जमीन ठेका वाला कब्जिया लेले होखे, अइसन त आजु ले ना सुनाइल।    

            काल्हु तक जे एह तीनों कानूनन के नीमन बतावत ना थाकत रहे आ ओकरा के अपना बाबूजी के इच्छा के सनमान मानत रहे आ भोंपू पर आपन चउकठा चमकावत रहे,अब सुल्फा मारके अलगे राग गावत देखात बा। सब त सब मनरखनों आपन भकोल बोल बोल रहल बा। बुझात त इहो बा कि 2022 के तइयारी में केहुवो कवनो कोर-कसर नइखे छोड़ल चाहत। इहवाँ बबवा आपन लठ्ठ में तेल लगा के तइयार बइठल बा कि लोग कुछों गड़बड़ करो आ बबवा आपन लठ्ठ फेरो। बन्न-बुन्न वाला खेला एही से उत्तर प्रदेश में ना भइल। लाल किला वाला खेला का चलते हरियरकी टोपी वाले के पुक्का फार के रोवे के पड़ गइल।फेर त महँग-महँग गाड़ी वाला किसान लोग हरियरकी टोपी वाला के चारु ओर घूरियाए लागल। हरियरकी टोपी वाला के दोकान चल निकलल। नेता-परेता आ रंग-रंग के भोंपू वाला लोग उहाँ चहुंपे लागल। फेर उ एगो पंचइती के नया खेला शुरू क देलस।

            एह घरी 'खेला होबे'  ढेर मसहूर हो रहल बा। ढेर लोग एकरा में लागल बा। खूबे रेकाड बज रहल बा। लइका, बूढ़, जवान सभे एह घरी इहे गा रहल बा। बाकि कवन 'खेला होबे' ई केकरो पता नइखे। रैली से रैला तक, गली से मोहल्ला तक, गाँव से शहर तक, जिला से प्रदेश तक आ प्रदेश से देश तक  इहे चल रहल बा। चलन में त एह घरी 'जय श्री राम' जरिको कम नइखे। दूनों में एगो बरियार अंतर बा। 'खेला होबे' के कुछ लो छाती चाकर क के बोलता, त कुछ लो चुटकी लेता बाकि 'जय श्री राम' बोलला पर कुछ लोगन के मिरचाई लाग जात बा। बउवाय- बउवाय के लोग आपन कपारे क बार नोचे लागता। कुछ लो त इहो कहता कि 'जय श्री राम' इहवाँ ना बोलाई त फेर कहवाँ बोलाई। खिसिआई के अइसनका लोग इहो कहि देता कि हमनी के पाकिस्तान में ना नु बोले जाएम। खैर रउवो सभे जानतानी कि उहवाँ बोललो ना जा सकेला। बड़का बाबा त मुस्कियात कहलें कि बुझाता कुछ लोगन के खेला खतम होखे वाला बा। 

             मनरखना 'खेला होबे''खेला खतम' का बीच में अझुराइल बा। एगो चलन में त इहो बा कि मनरखना के पितिआउत भाई त दोसरा के का 'पहिरे के चाही' भा केकरा से 'मिले के चाही' एह दूनों काम ला अपना दोकान से  साटिक-फिटिक बाँटे के जोगाड़ जोड़ रहल बाड़ें।कोरोना काल के बाद ढेर लोगन के दोकान बन्न हो चुकल बा भा बन्न होखे वाला बा,अइसना में साइड बिजनेस कइल गलत ना कहाई, बाकि बूड़े के चानस ढेर लउकता। ई जनला का बाद मनरखना अपने  पितिआउत भाई से कुछ रिसिआइल बुझाता। बाकि डरे बोल नइखे पावत। अब डर ई कि मनराखन के बेगर सुल्फो फूंकले लोग इहे कहेला कि लागता कि डोज़ मार के आवता। बेचारे के हाल अबरे के मेहरी भर गाँव के भउजी लेखा हो गइल बा।

            भुंवरी काकी मनरखना के कुछ काम-धाम जोग बनावल चाहत बानी बाकि जोगाड़े नइखे लागत। अब काकी के, के समझाओ कि हर काम अपना समय पर नीक लागेला आ मोका रोज-रोज ना मिलेला। एही बीचे कुछ लो भुंवरी काकी के टँगरी खींचे में लाग गइल बा। ई उ लोग बा जेकरा के आजु ले भुंवरी काकी आपन बूझत रहल बिया। मोटा भाई के डंडा आ बड़का बबवा के मंतर के आगे  भुंवरी काकी के खोपड़िया चकरघिन्नी लेखा घूमे लागल बा। ई सब समय के चक्करे नु कहल जाई कि भुंवरी काकी के घुरहु-सोमारू सभे गियान दे रहल बा, ई देखि के मनरखनों के मन करुआइन हो गइल बा। बाकि डर के मारे मनरखना बेचारा अपने माई से कुछ पूछ भा कहियो ना पावेला, का पता काल्हु के माई कुछ आउरो ना छीन ले। मने खेला होबे त इहों बा बाकि अलहदा। खेला होबे आ खेला खतम के फेरा में सभे औंजाइल बा, बाकि करो त का करो आ जनता ई दूनों देखि के चवनिया मुस्की मार रहल बा। अब त रउवो मुस्किआईं , हम चलनी अपना राहे।

 

जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता 

Saturday, February 20, 2021

गोबरउरा के जनम छोड़ावल जाव

 

बोल बतियाय के

मंच माइक सजाय के

माला पहिर, पहिराय के

अपना के बीजी देखावल जाव

गोबरउरा के जनम छोड़ावल जाव।

 

कतनों फइलाव देखाय के

बानी पहरूवा, ई जनाय के

कुछ भीड़-भाड़ जुटाय के

तेवहार लेखा मनावल जाव

गोबरउरा के जनम छोड़ावल जाव।

 

गिनती पहाड़ा पढ़ाय के

कवनो अंक बताय के

जरि मनी चिचिआय के

आपन चेहरा चमकावल जाव

गोबरउरा के जनम छोड़ावल जाव।

 

कुछ खाय नहाय के

कुछ गाय-बजाय के

कुछ नचनियों नचवाय के

लोगिन के बहकावल जाव

गोबरउरा के जनम छोड़ावल जाव।

 

·       जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

 

 

Friday, January 29, 2021

अबरे के मेहरी, भर गाँव के भउजी

 का जमाना आ गयो भाया, कोरोनवाँ आइल त आइल संगही बरियार बेरोजगारी,लूट-खसोट,गिरहकटई चोरी-चकारी इसन अपने संघतियनों के घलुहा में लेके आ गइल बा। एकही के निभावल भारी बुझात रहल , अब घलुहा के कइसे निपटाओ मनई। ई ना त बुझे लायक बाति बा, न बुझाते बा। बुझइयो जाव त एकरा से पार कइसे पावल जाव,कवनों रसते नइखे।ढेर लोग भर भर के फेंक रहल बा आ मनई लपेटे में लागल बा। केकरा पर बिसवास करो आ केकरा पर ना करो, एकर निरनय लीहल आसान नइखे। इहाँ त चोरो आ घघोटो वाला खेला के संगे 'मारे बरियरा रोवहूँ न दे' वाला खेला चल रहल बा। जेके देखा उहे अब त अबरे के मेहरी बुझ लेले बा। जेकरे में कवनों गूदा नइखे उहो आँख देखा रहल बा। आंखे देखावे तक बाति रहत, तबों गलीमत रहित, इहाँ त कूदब-फानब मचवले बा आ चोरन क सरदार सुर्ती के संगे ताल ठोंक रहल बा। आउर त आउर जेकरा घरे दाना नइखे उहो दानी बने के ढोंग रचा रहल बा। रउवा त जनते बानी कि जब सुर्तियो के ढेर ठोंक दियाला बरियार झाँक चढ़ि जाले आ छींक शुरू हो जाले। जब ढेर छींक आवे लागेले त मनई बउराय जाला आ अकबकाये लागेला। अइसना में दोसरो के चिजुईयन के आपन बतावे लागेला। जेहर-जेहर ओकर दीठी जाले कुल्हि ओकरे बुझाये लागेला। इहे हाल एह घरी चोरन के सरदार के भइल बुझाता।चारों-ओरी 'इहो हमार', 'इहो हमार' के हुहकारा मचवले बा। दरोगा जी कतनों आँखि तरेरत बाड़न बाकि ओकरा पर कवनों असरे नइखे होत।

       सरदरवा के मउसियाउर भाई मने मनराखन अनही बिलबिला आ बउवा रहल बाड़ें। रोटी के हक निभावे के फेरा में आपनों जमीन गवें-गवें गवाँ रहल बाड़े। बाकि जे सुल्फा के बिना भरपूर डोज़ के बेगर बहरे ना निकसत उ बिना डबल डोज़ के बोली कइसे ? एह घरी मनराखन खूब बोल रहल बाड़ें, मतलब बुझीं, काहें? रंगीला चाचा काल्हु पान कचरत क़हत रहलें कि जेकर पचासा पार हो गइल होखे आ हरदी से भेंट ना होखे, बउवाई ना त का करी? रंगीला चाचा के अनुभव के सभे दाद देवेला बाकि मनराखन के माई के बुझाय तब नु। बाते बात में चाचा बोल पड़ले कि ई मनरखना के हर बाति के सबूत चाहेला, इहे हाल रहल त कहिओ अपने माइयो से सबूत माँगे लागी।

       एहनी सभन के हाल देखत-देखत मोटा भाई के पेट फूले लागल त उ बाबा लगे पहुंचले। उनुका आवत देखि बाबा मोछिए में मुसकियाये लगलें। ई बाति मोटा भाई के खोपड़ियों के घूमा देहलस बाकि मोटा भाई शांत होके बाबा  के उपदेस लेवे के फेरा में उहाँ पहुंचल रहलें। आखिर मोटा भाई मुसुकी के राज बाबा से पुछे के हिमत जुटा के पुछे ला मुँह खोललें, बाबा उनुके चुप करावत बस अतने कहलें, 'बेटा तेल देखो आ तेल की धार देखो' विश्राम के मुद्रा में चल गइलें। तब बाबा के एगो चेला मोटा भाई के कान में फुसफुसा के बोलल, भाई! बाबा आपन वाला कुल्हि काम दरोगा जी के अर्हा देले बाड़ें। एही से दरोगवा गुर्रा-गुर्रा के सभे धमका रहल बा आ बाबा मुस्किया रहल बाड़ें।

       अइसहूँ एह घरी सावन चलत बा,कुछ लोगन के अनही हरियरी देखाले, बुझाता मनराखनों के कतौ हरियरी लउके लागल बा।बाकि बाबा त बाबा हउवें, हरियरियो पर कीटनाशक छिड़कवा देले बाड़ें कादों, एही से उनुका मुसुकी गहिराह लउकत बा। बाकि जवन चोरन के सरदार बा नु ओकर आदत सौ सौ जुत्ते खाय तमासा घुस के देखे वाली बीमारी के शिकार हउवे, कतनों लतियावल जाई, बाकि आदत ना नु छूटी।बाबा ओकर नाक छेदे में लाग गइल बाड़ें, अब त विना नत्थी पहिरवले माने वाला नइखे। जवन एकाध गो आउर सरदरवा के चेला-चाटी चूँ-चपड़ कर रहल बाड़ें, ओहनी के कनेठी बाबा कब लगा दिहे,केहू के पता नइखे। अइसहूँ बाबा एह घरी मोछ-दाढ़ी पर हाथ फेर रहल बाड़ें, कब ओह चेलन-चपाटन पर हाथ फेर दीहें,पता नइखे। बाकि बेगर हाथ फेरले बाबा माने वाला नइखे। हम त ओह शुभ घरी के बाट जोह रहल बानी, उवों देखत रहीं, नीमने होखी।

-जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

                   

कउवा कान ले भागल बाकि केकर-----?

 का जमाना आ गयो भाया,बेगर जनले बुझले ढ़ेर लोग कउवा का पाछे दउड़ लगा रहल बा।ओह लोगन के केहु कहि देले बा कि तहार कान कउवा ले गइल। कुछ लोगन के ई एगो खेला बुझा रहल बा, एही से सगरे देश के खेला के मैदान बूझि के मनमरजी के खेल मनमरजी वाला लोग खेल रहल बाटे। आधा-तीहा मन से त केहुओ नइखे खेलत, सभे पूरा मन लगा के खेल रहल बाटे। गीता-कुरान के गियान में बूड़त-उतिरात लोगन के बस हाय-धुन खेलवे लउकत बाटे। कुछ लोग कुछ आउर तरह के खेला में लागल बाटे, हर नीमन खेला के बिगारे वाला खेला। खेला त खेला होला, कुछ लोग अपना हिसाब से ओकर परिभाषा गढ़े वाला खेल खेले में अझुराइल बाटे। कुछ लो ओह लोगन के अझुरावे वाला खेलवो खेल रहल बाटे। मने किसिम-किसिम के खेला पूरा दम-खम का संगे खेलल जा रहल बाटे। एह कुल्हि खेलवन के खेले वाला लो खेलाड़ियो खुदही बाटे, आ अंपायरो खुदही बनल बाटे। देखनिहार लो कबों खेला त कबों एक-दोसरा के सूरत निहार रहल बाटे।

            अलगा-अलगा गोल वाला लो एकही खेला के अलगा-अलगा ढंग से खेल रहल बाटे। खेला हो रहल बाटे, त हल्ला-हंगामा होखबे करी, कुछ लो गुत्थम-गुत्था होखबे करिहें, आ बात बढला पर कुछ फुकबो-तापब करबे करिहें, आखिर ओकरा बेगर उनुका खेलाड़ी कही के। एही से कुछ लो अपना के खेलाड़ी सिद्ध करे में लागल बाटे। अलगा-अलगा गोल वालन के तुर्रा ई कि उहे एह खेला से अस्मत बचा रहल बाड़ें। दिन आ समय बदल-बदल के एक्के खेला उहो अपना गोल के खेलाड़ियन के बहका-बहका के खेलवा रहल बाटे लो आ दोसरा गोल के लंगड़ी मारे में कवनो कोर-कसर नइखे छोड़त। हर गोल वाला लो अपना खाति दू-चार गो तीमारदारो रखले बाटे,जे रात-दिन तीमारदारी में लागल बाटे। हर गोल के मेठ लो तीमारदारन के दिल-दिमाग के अपना हिसाब बना के रखले बाटे। उहो लो नून के हक अदा करे में कवनो कोर-कसर नइखे उठा राखत। उनुका एह काम से देश जरे भा लोग मरे, कवनो मतलब नइखे।सभे मठाधीश लो आपन-आपन मठाधीसी चमकावे में लागल बुझाता।  

            जब से मोटा भाई अंगरेजी का क्रम के बदलने तबे से मनराखन पांडे के खोपड़िया भिन्नाइल बाटे। रोजे साँझी के अपना माई लग्गे जा के पूछे खातिर अगुताइल बाड़ें। मोका लगते नइखे एकरा चलते बउवा के कबों इहाँ त कबों उहाँ डोल रहल बाड़ें। कतों कुछ आ कतों कुछों बोल रहल बाड़ें। उनुका महतारी मुहुरत जोह रहल बानी।  अचके एकदिन मनराखन पांडे के मोका भेंटा गइल त पूछ बइठलें, माई रे! सी पहिला कइसे आ गइल ए आउर बी के? फेर मोटा भाई बी के मेटा के ए ले अइलें?

            उनुका माई कहलीं-सुन बेटवा, सी मने कैस, उहे पहिले आवेला, तोरा आजु ले इहे ना बुझाइल।

मनराखन पांडे कहलें- माई तोरा हर घरी कैस काहें पहिले सूझेला?

            सुन बेटवा! कैस पहिले ना सूझत, त तू चानी के चम्मच लेके जामल न रहते, आ हम दुनिया के सभले अमीर मेहरारून में से एगो ना नु कहाइत। बाक़िर मनरखना तू घबरइए जिन, हम आफत मचावे के जोगाड़ जोड़ देले बानी। अब इहे बूझ कि एह देश में आग लगबे करी। एह देश के हिंदुन के डी एन ए के हमरा पता बाटे, ई लोग हर घरी इहे सोचेला कि आगि बुझावल राजा के काम होला। कुछ लोग तमाशा देखी,कुछ लोग थपरी बजाई,कुछ लोग गालो बजाई आ कुछ लोग अपना-अपना घर में ढुक जाई,आगि के बुतावे खातिर केहू पजरे ना आई।हमनी के पहिलहूँ चानी कटनी सन आ आगहूँ  काटल जाई। इहाँ के परजा मूरख पहिलहूँ  रहल बिया आ अजुवो जस के तसे बिया। जेकरा के हमनी इहाँ अल्पसंख्यक कहेनी सन,ओहनी के पहिलहूँ देश के लूटने,आगि लगवने आ अबो हमरा ईसारा होते काम शुरू क दीहे सन। सुन मनरखना ! तू आपन बकलोली करत रह। एह देश का लोग तहरे पर हँसेला आ हम एह देश का लोगन के बुद्धि पर हँसिले आ देश का सोरी में मंठा डालीले। एह देश में जयचंद थोक में जामेले आ अपने सोवारथ में कबों कुछों करे खातिर तइयार रहेलें। एहु घरी कवनों कमी नइखे।   

            तबे ले मनराखन पाड़ें सपनात बाड़ें,बउवात बाड़ें आ किसिम-किसिम के मसीन बनावे आ बाति के बतंगड़ बनावे में लागल बाड़ें। मनराखन पांडे अपना मिशन के पूरा करे खातिर कबों-कबों गियान बटोरे खातिर बाहरो के चक्कर लगा रहल बाड़ें। बीच-बीच में योग आ धियानों करे खाति जात रहेलें। सुने में त इहो आवेला कि टोना-टोटका का फिराको में इहाँ-उहाँ डोलत रहेलें। गंडा ताबीज से लेके तांगसुई फांगसुई सभे के अजुमा रहल बाड़ें मनराखन। बाकि उनुका क़िसमत पर सियार के फेंकरल अबो ले कम ना भइल। अब त केहुओ कहि देवेला कि मनराखन मने गेहूँ का रास पर लेंढ़ा के बढ़ावन। बढ़ावन के त लोग बाबा कहि के गोड़ लागेला बाकि इहाँ मनराखन के लोग लेंढ़ा से बेसी ना  बुझेला। लोगन का अइसन समुझ बनला का पाछे कारनो बा, इहो सभे पता बा। जब रउवा इहाँ ले पढ़ि लेहनी त रउरा के लिखलो ले ढेर बुझा गइल होई, ई हमार बिसवास बाटे।

-जयशंकर प्रसाद  द्विवेदी