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Friday, April 9, 2021

का पकड़ीं ...का छोड़ीं

 

का जमाना आ गयो भाया,गियान के गँउखा के बेवस्था पर लोग ढीठ होके अंगुरी उठा रहल बाड़ें।अंगुरी उठावे वाला लोगन के भीतरि जरिको हिचिक नइखे। मरजाद के बात बेमानी हो चुकल बा। छींटाकसी के बाति मति सुनी भा सुनाईं। भाषा के परिभाषा देवार में आपन मुँह रगरि-रगरि के घवाहिल हो चुकल बिया। ओहपे अलंकार आ व्याकरण के मरहम कामे नइखे करत। गहिर घाव पर मरहम कामो ना करसु। ई जरि-मनी छिलाइल-छिछोहाइल जगहा ला होखेला। गहिर घावन में त ललकी दवाई में डूबावल लम्मी-लम्मी बत्ती डारल जाला आ उहो घाव भराये में लम्मे समयो लेला। कहल त इहो जाला कि समय बड़ से बड़ घाव के भर देला। बाकि कुछ लो अइसनों भेंटाला जे अपने घावन के कुरेद-कुरेद के जियतार राखेला आ ओकर दरद महसूसत रहेला। अइसना में मन के भीतरि परल गाँठ सुखात नाही बलुक लोग ओकरा के जोगा के राखेला आ रहि-रहि के ओकरा खाद-पानी देत-लेत रहेला। थोर-ढेर गियान लेके कुल्हे जीवा-जन्तु एह धरती पर जामेला आ सभेले जियादा बुद्धि-गियान के मतरा मनई लो में होला। ई मनई लो अपना समय पर देश आ समाज खाति नीक-बाउर सउंपबो करेला। ओह सउंपलका के अलग-अलग लो अलग-अलग नजर से देखेला आ अलग-अलग बतकुचन करत देखा जाला। अइसन कुल्हि बतकुचन के बखान कतना बयान करे जोग होला, ओकरा के ओह लोगन के बुद्धि-गियान पर छोड़ीं।

            समय त उहो रहे जब एक के दुख-लकलीफ में सगरी गाँव जुट जात रहे। एक के इजत पूरे गाँव के इजत मानल जात रहे। गाँव के कवनो लइकी के बियाह में सगरी गाँव अइसे जुटत रहे, जइसे उ लइकिया ओकर आपने लइकी होखे।साँचो में लोग एकरा के जीयत रहे। चउवन के चारा देवे के आपन सौभाग्य मानत रहे। जुआ में बैलन के नधले अपना बघार ओर जात किसान के घर-परिवार के संगही देश-समाज के चिंतो रहे। भलही उ किसान छान्ही-छप्पर में जिनगी बितावत रहे बाकि धूर-माटी में खेले वाला लइकन में देश के भविष्य देखत रहे। ढेर उल्लास के संगे देश के सेवा में अपने करेजा के टुकड़ा के सहजे नेवछावर करे में जरिको देर ना लगावत रहे। एहु घरी कुछ किसान लोग बाडर पर बइठ के सोझबग मनई लो के नोकसानों पहुंचावे में देर नइखे लगावत। देश के मरजाद के बाति त करबे मति करीं। कुछ मुट्ठी भर लो देश के सम्मान के धूर में मिलावे खाति अकुताइल देखाता।आगि में घीव डारे कुछ नामचीनो लो अपना जोगाड़ में चहुंप के बात के बतंगड़ बना रहल बा। खेत में कोड़त-कमात लो किसान ह कि महँग-महँग गाड़ी में डोलत लो किसान ह कि जवन करज में डूबत आपन जान दे देत ह, उ किसान ह। एकरो निर्णय के कुछ तथाकथित गियान बघारे वाला लोगन पर छोड़ीं। 

            कबों धरम मनई के जिनगी के नीमन से आ जोगा के चलावत रहे। ओकरा के संस्कारित करत रहे। बाकि आजु अइसन होत कतों देखाते नइखे। लोग अपना फयदा का हिसाब से धरम के परिभासित कर रहल बा,ओकरा देश आ समाज खाति सोचे के फुरसत नइखे।धरम के आजु चुनाव लड़े आ जीते के हथियार बना लीहल गइल बा। एह में सभे सउनाइल बा। धरम आ राजनीति के घालमेल बस बउरपन ला हो रहल बा। कब केकरा के बाहरी आ केकरा के भीतरी कहे लागी लो,रउरो के ना बुझाई। एक देश के भीतरि कतना आउर देश ह,ई जानल सोच के बहरा के बाति हो गइल बा। जब ई बाति बुद्धिजीवी लो के मान के लोहा नइखे रह गइल त मनराखन पांडे भा भुंवरी काकी के कहवाँ से पल्ले पड़ी। एह लोगिन के पल्ले पड़लो  से कवनों फ़ायदा होखी, एह में सभे के लेखा हमरो संदेह बा। काहें से कि भुंवरी काकी के इहाँ के धरम आ संस्कार बुझइबे ना करे आ मनराखन हर घरी सुल्फा पी के मस्त रहेलें। कहाँ का बोले के चाही, उनुका के इहे ना बुझाला, फेर सोच-विचार करे के काम उनुका से कइसे होखी। हमनी सभन के का पकड़े के बा आ का छोड़े के बा,एही सोच का संगे मगज़मारी करत रहे के बा।हम त एह मगज़मारी में अझुराइल बानी,रउवा अपनों ला कुछ नीक-बाउर सोचबे करब,ई हमरा बिसवास बा।अपना एही बिसवास का संगे रउवा सभे के छोड़ रहल बानी। फेरु हलिए मिलल जाई।      

 

जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता       

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