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Wednesday, October 20, 2021

मन के राग

 

कवनो देश के जातीय भावना के पहिचान उहाँ के लोक संस्कृति होले। लोक जीवने जातीय जिनगी के मूल सोत होला। एह सोत से निकसे वाली धारा समय के बदलाव के अपना भीतरि जोगावत आ समुआवत चलत रहेले। ई प्रान धारा चलला का बादो नीमन रहेले। बदलाव का बादो ओकर पहिचान ना बदलेले। लोकगीत लोक संस्कृति के जियतार सुर के संगम होखेला। लोक के विशेषता अपना संपूर्णता का संगे एह पारंपरिक लोकगीतन के जेकरे रचयितन के पता नइखे, के मन के राग में मिल के सुन्नर कंठन से मधुर सुर में सुनात रहेले।

            अनघा भाव के थाती से भरल-पूरल हमनी के जिनगी के सभेले पुख्ता पहिचान एह गीतन का सोझा अपना के बचावे क बीपत घहराइल बा। मने लोकगीतन के गवें-गवें बिलाए के समय नियरा गइल बा। भा कहल जाव कि लोकगीत गवें-गवें बिला रहल बानी। एकरा पाछे कई गो कारन बा। सेतिहा फिलमी सोच, छेहर भाव आउर अश्लील गीत-गवनई हमनी के सांस्कृतिक धरोहर एह लोकगीतन के बहुते बाउर ढंग से प्रभावित कइले बा। एकर असर नवही पीढ़ी आ अदमिन से बेसी मेहरारून पर भइल बा। ई ढेर चिन्ता के बाति बा। काहें से कि मेहरारून के अपना संस्कृति से गहिर लगाव होला। बियाह,बरत,पूजा के बेरा गाये जाये वाली गीतन में अब पारंपरिक गीतन के जगहा फिलमी तरज के गीत-गवनई शुरू हो गइल बा। जवन हियरा के बेधेले।    

            एह बाति के सोझा राखत बेरा नवके क बिरोध आ पुरनके क तरफदारी नइखे करत। नवका के सोवागत करे खाति हम तइयार बानी बाकि ओकर झोंका हमनी क दीयरी बुतावे खाति अड़ियाइल होखे त अइसना में हमार का गलती बा। अइसना में सोवागत करीं त कइसे करीं? नवके दियरी के नवकी जोत से ?नवकी जोत खाति दियरी में नया तेल आ नई बाती चाही। अगर नीमन आ भरल-पूरल चीजु लेके नवकी जोत आ रहल बा त ओकर सोवागत बा आ ना त बरिजे खाति हम विवश बानी। इहाँ त ई हाल बा कि नवकी जोत पुरनका तेल सोखि के आ बाती के जार के हमरा भरमावे ला तइयार बा। तेल ना होखी त बाती जरिये नु जाई । भइया ! हम दसो नोह जोरि के क़हत बानी कि अइसन बिलवावन चमक आ जोत हमरा ना चाही।

            उठस सुर, लय आउर ताल आ अश्लील गवनई हिया के भइबे ना करी। जब हिया के नीमने ना लागी त सब बेकार। आचार्य शुक्ल कविता के भाव के सभेले ऊंच पिढ़ई पर बइठवले बाड़न। फेर एकरा के छोड़िके हम मुरदाह से अपना के कइसे जोड़ीं।

            हमनी के पारंपरिक गीतन में लोक-भाव के लमहर थाती भरल बा, उहे जिनगी के खजाना ह। एह दुनियाँ के मजगर धरोहर ह। जवन जिनगी के धड़कन के आहट देत सभे से कटल आ बेगर कहले सभे कुछ बोल जाला।

            आईं सभे ! एह रस भरल समुन्दर के एक चुरुवा जल पी के गर तर कइल जाव। देखीं, का भेंटाला ! कुछ हुलास,कुछ थिरकन भा कंपकपी भा कुछ उठ्ठस भा दुख-तकलीफ भा कुछो आउर...! थोर ढेर तकलीफ़ो होखे, त माफ करेम-

            दुख सहि के सुख पवला के बिसवास के संगे।

                        एगो कहनी कहे जातानी, जवन कहलो बा आ नाहियों कहल बा। हम जानतानी कि कल्पना सिरजना खाति जरूरी होला। बेगर कल्पना के सिरजना होइये ना सकेले। अगर रउवा मानी त हम कहेम कि कल्पना कवनो बाउर चीजु नइखे। उ बिना आधार के ना हो सकेले। जथारथ के चाह कल्पना के बिरोधी ना बलुक सहजोगी होला। बेगर कल्पना के मनई के जिनगी संभव नइखे। चलीं, एकरा छोड़ीं, फेर कबों समुझल जाई, त अब हम कहनी कहे जा रहल बानी।

            भइया ! एगो गाँव में एगो बोधन बाबा रहत रहलें। बोधन बाबा के एगो दुलरूई कनिया रहे, जवना के नाँव पान कुँवर रहे। पान कुँवर बहुते सुघर-साघर आ शीलवती कनिया रहलीं। उनुके सुघरई के जे देखे उ देखते रह जाय आ उनुके सुघरई के बखान करत बेर जरिकों न अघाय। पान कुँवर अपने बाबा के बहुते दुलरुई रहलीं। उनुका सुघरई पर उनुका बाबा बखान करत कहें-

'पनवा के नाई पातरि सोपरिया अस ढुरहुर हरदी अइसन पीयरि हो।'  

            अब तनिका पान के बारे मों सोचीं-कतना रसगर,मनहर आ पारदर्शी होला। अइसने उनुका शरीर के बनावट रहे। कवि के संतोष ना भइल त आगु लिखलें सोपारी लेखा चिक्कन आउर रंग हरदी लेखा पीयर, टहक।  ई कवनों कवि के कल्पना हो सकेले बाकि उनुका सुघरई रहल अइसने। पान कुँवर  गवें-गवें बड़ होखे लगली। ओइसही उनुकर सुघरई आउर निखरे लागल। एक त सुघ्घर ओपर से जवानी के  देहरी पर डेग धरत बेटी के देखि के कवनों बाप के नीन उड़ी जाले।

            बोधन बाबा पान कुँवर खाति बर ढूढ़ें लगलें। भाग- दउड़ के बियाह तय क दीहले। दिन नियरात-नियरात लगे आ गइल। बियाह के विधि-बिधान हरदी आ माड़ो के संगे होला। मने मड़वा के संगही कनिया के अपनही घर में पिया के घरे जाये के अभ्यास करावल जाला। जब पान कुँवर के घरे मड़वा छवाये लागल, ओह घरी पान कुँवर के मन के भाव कवि उनुका बाबा का सोझा रखले बाड़ें। ओह घरी मेहरारू लोग गावेलीं-

झाँझर मड़उवा जिन छवइहा मोरे बाबा,कि लाग जइहें सुरुजू  कइ जोत।

            ई गीत उहाँ छवात माड़ो से बेसी पान कुँवर के जिनगी के चिंता के बखान करि रहल बा। पान कुँवर सगरी कनिया लोगन के प्रतिनिधि का रूप में उहाँ बाड़ी। पान कुँवर अपने बाबा से आश्वासन चाहत बाड़ी कि उनुके दुलरूई बिटिया के ससुरे में तनिको सा दुख-तकलीफ न होखे। बाबा उनुके मन के भाव बूझ जात बाड़ें आ अपने बिटिया के आस धरावत  कहतारें- 

'कहतू तs ये बेटी तमूवाँ तनवती, सुरुजू के करतीं अलोप।'        

            ए बेटी! अइसन जनि कहs। तू कहबू त हम अइसन तम्मू तनवा देम जवना से सुरूज़ ढ़का जइहें। मने अइसन मजगुत घर तहरा हम देम जवने के नियरे कवनो दुख-तकलीफ चहुंपबे ना करी। वैज्ञानिक लो के बुद्धि एकरा दंभ आ विद्वान लो एकरा झूठिया क आस बोली आ बस के बहरा के बाति बताई। बाकि अइसन बाति नइखे,अपना औकात से ढेर आगे बढ़िके केकरो ला सुरक्षा के आस बन्हावल मुरुखई ना बलुक गहिराह परेम के बाति होले। अइसना में कवनो बाप अपने दुलरूई बेटी खाति का-का ना सोच सकेला। चाहे जइसे होखे, अपना दुलरूई बेटी के आस बन्हइबे करी। अइसन ना कइला पर उनुकर कुल्हि तपस्या बिरथा नु हो जाई।

            अइसने आस बन्हावे वाले सुख के परिखे में ना जाने कतने बरिस से घूमी रहल बाड़ें। अपना बिटिया के जोग दुलहा खोजे खाति कहवाँ-कहवाँ के धूर नाही छनलें। उ जात रहलें आ लउट के खलिहा चलि आवत रहलें। हर बेर अइसने होत रहे , थकला का बाद उनुका लागत रहे कि उनुकर बेटी कुँवारे रहि जाई।

            'पूरुब में खोजली बेटी पछिम में खोजली

                        खोजि अइली देस संसार।

            तोहरे सरीखे बेटी वर नाही पवली,

                        अब बेटी रहि जइहें कुँवार।'

                                    इहवाँ सरीखे सबद विचार करे जोग बा। वर त हर गाँव में बाड़ें, गाँव के घर-घर में बाड़ें। बाकि पान कुँवर के जोग वर कहीं नइखे मिल पावत। कतों घर बा त वर नइखे आ कतों वर बा त घर नइखे। बाबा के मन के भावते नइखे, त कइसे तइयार होखें। सुन्नर घर आ वर बाड़ें, इनको कमी नइखे। बाकि उहाँ चहुंपे खाति बाबा के समरथ नइखे। थाकल बाप के लागता कि उनुकर बेटी कुँवारे रहि जाई। ई गीत अजुवो के लइकिन के बाबूजी लो के मजबूरी आ उनुका लो के मन के टीस के एकदम नीमन से उकेर रहल बा।

            बेटियो भारत के रहनिहार बिया। संस्कार से भरल-पूरल आ आतमा के आवाज सुने वाली। उ अपने बाबूजी के पीर बूझ गइल। उ आपन जिनगी दाँव पर लगा सकेले। उ अपना के मेटा के दोसरा के खुस राखे वाली भावना से अपने करेजा पर पाथर राखि के बाबा के दुख हर लेवेले। अपना बुद्धि से अपने बाबा के राह असान बना देवेले। अपने बाबा के सोझा आपन विचार राख़ देवेले-

            "साँवर वर देखि जिनि भरमा बाबा,

                        साँवर सिरी भगवान । "

                        ए बाबा ! तूँ साँवर वर  देखि के ओकरा के हमरा जोग नइखे,अइसन सोचि के भरम में मति पड़ा। साँवर होखल कउनों बाउर बाति नइखे, साँवर त भगवान सिरी क्रिसनों  रहलें। अब बताईं,आपन बलिदान देके, अपना के दुख चहुंपा के दोसरा के सुख चहुंपावे वाली भावना आउर कतों भेंटाई?

            त केनहूँ  बाति बन गइल। आगु क हाल ढेर अझुराइल बा-

                        जब बेटी ससुरे जाये लागेले, त माई बाबूजी के करेजा फाटे लागेला। गलानी,छोभ,करुना मतिन भाव से मन भरि जाला। कंठ रुन्हा जाला। इहाँ खुसी आउर दुख दूनों बा। बाकि अपना आँखि के पुतरी से बिछोह नाही सहाला आ माई-बाबूजी लो बउराह लेखा हो जाला आ फेर ओरहनों देला लो-

 

'खोनवन-खोनवन बेटी दुधवा पिअउली

            दहिया खिअउली साढ़ीवाल ।

कोरवाँ से कबों नाही भुइयाँ उतरली

            रखली मs अँखिया के छाँव।

एकहु नुकुति नाही मनलू मोरि बेटी

            लगलू  सुन्नर वर साथ। "

                       

            देखीं नु,कतना बड़ अझुरहट बा। 'अर्थो हि कन्या परकीयमेव' सभे जानेला। तबो हिया पर बुद्धि के सासन ना चल पावेला। बेटी वर का संगे खुस होलीं। बाकि माई-बाबूजी खुसी का संगे गहिराह दुख  के समुंदर में डूबत-उतिरात रहेला। अइसना में केकरो बुद्धि मरा जाले। कालीदास के एह दुख के अनेसा रहल। काश! कालीदास ई दुख भोगले रहतें त सभे बाबूजी लोगन के पीर के बानी मिल गइल होइत। बाकि पान कुँवर के ई कहनी हर कुँवरि के कहनी बा। आउर बोधन बाबा सभे के बाबा के प्रतिनिधि बाड़न। भाव के अइसन गहिराह पसराव केकरो संवेदना के जगा देवेले। एहसे बढि के जियतार आउर भाव का हो सकेला?

            ई जवन कहनी हम कहनी ह, ई त एगो छोटहन परतोख भर ह। रउरा सभे के समरथ भाषा में गहिराह संवेदना से जुड़ल कतने कहनी गाँव के चप्पा चप्पा पर भेंटा जाई। प्रेम उन्माद के,विरह के अगिन के, बसंत के हुलास के , रिमझिम बारीस में ठाट से मेंहदी से सिंगार के, अतने ना जाड़ में किकुरत बुढ़िया ईया के, जेठ के तातल गरमी में झंउसात बूढ़ बाप के,कुँवार बहिन के सपनात शील के,बाझिन के बेकहल दरद के, हत्या आउर आत्महत्या का बीच झूलत,जीयत-मुअत किरसित असहाय के। मने जिनगी के हर हाल के, हर पल के बतकही के । इहाँ न रउवा ई कुल्हि सुने के साहस जुटा सकेनी, ना हमरा अतना कुल्हि सुनावे समरथ बा। हम त रउवा सभे के एहर के एगो रहता भर देखवनी ह। हमारा बिसवास बाटे की रउवा उहाँ जरूर जाएम। उहाँ रउरा के पूरा ना त  आधा-तीहा जीयत जागत लो जरूर मिलिहें।

'' एह जम्म ठिग्गाह गयउजिहि सिर खग्ग न भग्गु

तिख्खा तुरिय न तोरिया गोरी गले न लग्गु॥"

            हम देखले बानी एह उपजाऊ भूई से जामल एह लोकगीतन के मिठास लब्ध प्रतिष्ठ कवि लो के आ रसिक लो के अपना ओर जबरी खींच ले आवेले। सुन्नर मेहरारू आ लइकिन के कंठ से निकरे वाली सुर लहरी से लागता उ लो के हिया के राग क राधिका उपरिया जालीं। एही से जयदेव कहले बाड़ें-

 

रति सुखसारे गतमभिसारे मदन मनोहर वेशम।

न कुरु नितम्बिनी गमन बिलम्बिनी मनुसरते हृदयेशम'

धीर समीरे यमुना तीरे  बसति बने बनमाली

गोपी पीन पयोधर मर्दन चंचल कर युगशाली।

 

 

मूल रचना- मानस राग

विधा- निबंध

मूल रचनाकार - डॉ उमेश प्रसाद सिंह

भोजपुरी भावानुवाद - जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

 

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