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Thursday, October 21, 2021

श्री ब्रह्मेश्वरनाथ मंदिर

 संसार मे अइसन कम लोग होखेला,जेकरा हाथ से कीर्ति काम  होला।कुआँ ,पोखरा,मंदिर,विद्यालय आदि बनवावल सबका कल्याण खातिर होला।भगवान जेकरा हाथे सब करावल चाहेंल,उहइ अइसन कुल काम करे बदे अग्रसर होखेला।ओहि के जीवन मे ख्याति मिलइले,ओकर लोक परलोक संवर जाला।धन दौलत बहुत लोगन के पास होखेला,बाकी कुल काम खातिर भुलाइके भी ना सोंचेला अइसने कीर्ति स्थापना करावे बदे भगवान पूज्य बड़े पिताजी के अपना निमित्त बनउल।उनका हाथ से श्री ब्रह्मेश्वरनाथ मंदिर निर्माण पंच देवन स्थापना हो गइल। किशोरावस्था मा बड़का बाबूजी बाबूजी दूनौ जने मिलके इतना बड़ कीर्तिमान स्थापित कई दिहलस।सुबह शाम पूजा भोग आरती,साल भर मा होखे वाला भगवदीय उत्सवन के मनावल उनका दिनचर्या बन गइल।

बंश कीर्ति बढावेवाली, अच्छा संस्कार देवे वाली,सुख समृद्धि,आरोग्यता प्रदान करे वाली सुकृति पूरा प्रभाव हमरा जीवन पर पड़ल।जीविकोपार्जन खातिर अर्थ प्रदान करे वाली पद प्रतिष्ठा हमरा के मिलल,एकरा   अलावे भगवान हमका अइसन सद्गुण दिहलें जवना से खुद आनंदित रहि के दूसरे लोगन के भी आनंद दे रहल बानी मैया सरस्वती महान कृपा बा।सारस्वत वैभव हमरा के संस्कार में मिलल बा।परिणामस्वरूप श्री ब्रह्मेश्वर नाथ मंदिर स्थापना आउर वर्ष पर्यंत होवे वाला उत्सवन पर प्रकाश डाले वाली रचना हमरा मानस पटल मा समाइल उभर के एक लघु पुस्तक रूप ले लिहलस।एक रा प्रकाशित करावे मुख्य उद्देश्य केवल बस केवल बनशानुगत एकर अनुकरण हॉट रहे।अगली पीढ़ी एके जाने,संस्कार मा उतारे, आजीवन निर्वाह करत रहे,इह सार्थक प्रयास बा।येहि मा अपनो जीवन सफलता बाटे।

उल्लेख

बैसाख शुक्ल सप्तमी दिन शनिवार,तदनुसार दिनांक 25 अप्रैल 2015,दोपहर समय रहल,मन मा भाव जागल कि श्री ब्रह्मेश्वरनाथ मंदिर स्थापना उत्सव चित्रण आपन  रचना के माध्यम से कइल जाय।जैसई कलम उठल श्री गणेशाय नमः लिखाइल,ठीक ओहि समय 11: 45 बजत रहल कि भूकंप गइल।मन कांप उठल,तन सिहर गइल।मन मा अनेक भाव उठै लागल।भगवान शिव कृपा मानके लिखल शुरू कइली।कुछ प्रारंभिक अंश इहां उद्धृत कइल जात बा, जवना से रउवा सभे के जानकारी होई।नीचे लिखल जरूर पढ़ीं---

दोहा

उन्नीस सौ पंचानबे संबत माधव मास।

शुक्ल पक्ष तिथि सप्तमी,भृगुवासर दिन खास।।1।।

पार्वती शिव साथ मे श्री गणेश हनुमान।

सिंहासन पर राजते शालिग्राम भगवान।।2।।

प्राण प्रतिष्ठा पूर्ण कर,नन्हकू जोड़े हाथ।

मंदिर की स्थापना श्री ब्रह्मेश्वरनाथ।।3।।

ग्राम बरहुंआ में बसा दूबे बंश महान।

है चकिया तहसील में जिला चंदौली जान।।4।।

नन्हकू पुरुसोत्तम  हुये, रामसकल सुत श्रेष्ठ।

दूबे पुरुषोत्तम अनुज नन्हकू भ्राता ज्येष्ठ।।5।।

पूर्ण हुई मनकामना दोनों के हिय हर्ष।

सदा मनाते रहे यह उत्सव प्रतिवर्ष।।6।।

नित्य नियम से अर्चना, सुबह शाम का भोग।

संध्या वंदन आरती करती सदा निरोग।।7।।

धन्य हुआ कुल आपका कीर्ति हुई ललाम।

पूज्य पिता के चरण को छूकर करूँ  प्रणाम।।8।।

अकस्मात इच्छा हुई मन मै उठा तरंग।

कांप उठी धरती सकळ, फड़क उठे सब अंग।।9।।

यह कैसा संकेत है मन मे प्रश्न अनेक।

अंदर से उत्तर मिला,शिव का शुभ  अभिषेक।।10।।

पुलक प्रकट धरती समझ,शारद का वरदान।

लाल भाल में चल पड़ी,रचना यह अनजान।।11।।

छंद:--अनजान यह रचना सुखद,शुभ कीर्ति मंगलदायिनी।

प्रभु आशुतोष भरोस करि,पायो भगति अनपायिनी।।

शिव भजन सेवा यजन में,बचपन से मन रमता रहा।

कुल कीर्ति का यह विशद यश,यह दास कछु गायन चहा।।

सोरठा:---

श्री ब्रह्मेश्वरनाथ मंदिर यह सुंदर सुखद।

करौं विशद गुन गाथ,माथ नाइ कर जोरि करि।।

भौगोलिक स्थिति

सुरम्य वनस्थली जहाँ प्रकृतिं मनोरम छटा बिखेर रहल बा,अइसने सुघर उपत्यका में हमार गाँव बरहूँआ जवने नाम ब्रह्मपुर भी बाटे बसल ह। जिला चंदौली चकिया तहसील जहवाँ चकिया से इलिया तक पक्की सड़क बनल बा,जवन बिहार तक गइल बा,चकिया से पूरब 4कि0मी0 दूर पर लबे रोड पर गाँव पड़ेला।इहां से रचिके दूर लतीफशाह बांध बाटे,जवना से नहर जाल बिछल बा।इहाँ के धरती शस्य स्यामला बाटे।कर्मनाशा नदी भी बह रहल बा,जवने से लाख लाख आबादी भरण पोषण होइ रहल बा,एसे एकर पौराणिक नाम कुकर्म नाशा बाटे।दक्षिण और गोलवा अउर देवरी पहाड़ खड़ा बा। इहाँ हमनी पुरखा पुरनिया पवनी परजुनियाँ संग लइके कांतिथ मिर्जापुर जहवाँ परवा गॉंव बाटे उहवें से आके बसलन,येहि से हमनी के परवा दूबे कहैल।

येहि कुल मा श्रीमान बद्री दूबे भइलन,उनका पुत्र श्री रामसकल दूबे दुइगो संतान भइलें।जेठरा श्री नन्हकू दूबे,लहुरा श्री पुरुषोत्तम दूबे।जेठरा  पुत्र बचपन से ही साधु स्वभाव वाला, पूजा पाठ मा विशेष रुचि रखे वाला रहलें।अपना शादी विवाह ना कइलें।पुरुषोत्तम दूबे दुइगो पुत्र हमनी हीरालाल द्विवेदी ,अमरनाथ द्विवेदी बानी जा।

बड़का बाबूजी प्रबल इच्छा भइल कि अपना गृह परिसर में भगवान शंकर जी मंदिर बनवाईब।सच्ची लगन अउर दृढ़ संकल्प परिणाम भइल कि जवानी में ही प्राण प्रण से लागिके निर्माण सामग्री,ढोका पत्थर पटिया गाटर जुटावे शुरू कइले आउर मिस्त्री मजदूर युद्ध स्तर पर लगा के जबले मंदिर बनवा नाही लिहेस सांस ना लिहल।पूरा पत्थर पहाड़ घरहि मा गंज गइल।उनका मुँह से सुनले बानी कि जब पत्थर परमिट करावे जांय अधिकारी लोग कहें कि पंडित जी खूब ढोई आपके कौनो रोक ना बाटे।कोई पकड़े कह देईं ,जवन हनुमानजी कहले रहलें।

*मोहि नाही बाँधे कर लाजा।

कीन्ह चहउँ मैं प्रभु कर काजा।।*

मेहनत अइसन रंग लियाईल कि मंदिर ,चारी ओर ओसारी आगे चौतरा सुंदर बनकर तैयार हो गइल। फिर मूर्ति मगावल गइल,हनुमान जी मूर्ति बड़ सा शिलाखंड में गढ़ल गइल।ओह जमाने मे बनारस से कारीगर मूर्ति उकेरे ऑइल रहें। गर्भगृह मा षट्कोणीय अरघा बनल जवना मा शिव लिंग स्थापित भइल।ऊंची चौकी पर सिंहासन मा शालिग्राम,श्री हनुमान जी,पार्वती अम्बा आउर गणेशजी मूर्ति पधरावल गइल।अरघा के सामने नंदी जी बैठावल गइल।दूर दूर से प्रकांड कर्मकांड के विद्वान बुलवा के षोड्सोपचार विधिवत पूजन संकल्प दुनो भाई लिहल,फिर बिधि बिधान से स्थापना सम्पन्न भइल।प्राण प्रतिष्ठा के बाद कुल गुरू महाराज रुद्राष्टक स्तुति कइलें,आउर नित्य इहे स्तुति गावे गुरु मंत्र दिहेस।एकर उद्धरण" उत्सव प्रकाश" से देखीं सभे:---

चौपाई:--ब्रह्मपुरी यह मंदिर सोहा।

नाथ ब्रह्मेश्वर छबि मन मोहा।।

अरघा अति सुंदर पाषाना।

षष्ठपहल षटकोण विधना।।

बाम भाग गिरिजा गृह सोहा।

मूरति मधुर लेत मन मोहा।।

जय जय जय जगदम्ब भवानी।

महिमा जासु जाई बखानी।।

श्री गणेश तेहि निकट विराजें।

मंगल मूरति सिन्धुर साजें।।

अरघा मध्य सोह शिव लिंगा।

जल टपकत तब उठत तरंगा।।

डमरू और त्रिशूल सुहावा।

नंदी नित शिव दर्शन पावा।।

सिंहासन अति दिव्य मनोहर।

शालिग्राम प्रभु राजत ऊपर।।

तेहि समीप ठाढ़े हनुमाना।

रुद्र रूप शंकर भगवाना।।

दोहा:-^--

प्रनवउँ पवनकुमार प्रभु इष्टदेव हनुमान।

करहुँ सदा मंगल सबहि" लालदास "के प्रान।।

बाबूजी दृढ़ संकल्प पूरा भइल।भगवान शिव नाम श्री ब्रह्मेश्वरनाथ जइसन आख्या से संबोधित कइल गइल।ओहि समय संबत 1995 चलत रहल।बैसाख महीना शुक्ल पक्ष सप्तमी दिन शुक्रवार रहल।येहि शुभ मुहूर्त में स्थापना महोत्सव सम्पन्न भइल।आज  संबत 2078 चल रहल बा।एकर मतलब मंदिर बनले कुल 83 बरिश बीत गइल। बाबूजी लोगन के स्वर्गवासी भइलें भी लगभग 42- 43 साल हो गइल।मंदिर ओसारी मा शिलालेख लगल बा।दो पत्थर जवना पर संस्कृत भाषा आउर हिंदी मे लिखावट बाटे।संस्कृत श्लोक हमनी पूर्वज रामस्वरूप  दूबे जी रचले  रहलें, अइसन सुने में आवेला।।

शिलालेख छाया चित्र नीचे देखीं सभे:---

तब से लइके आज ले मंदिर स्थापना दिवस वार्षिकोत्सव रूप में मनावल जात बा।जब ले लोग I रहन धूम धाम से मनावत रहें,उनका बाद हमनी मनावत आवत बाटी।ब्रह्मेश्वरनाथ कृपा बाबूजी पूण्य दूनों मिलल हम इंजीनियर पद पर सरकारी सेवा मा नियुक्त भइली। मंदिर जीर्णोद्धार करवली,बड़ा सा हाल बनवली ।श्री हनुमानजी जन्मोत्सव कार्तिक महीना में दीपावली पर बड़े धूम धाम से मनल। मानस पाठ, प्रवचन,संगीत आउर कविसम्मेलन तीन दिन बृहद कार्यक्रम भइल।दूर दूर से आके नामचीन कलाकार भाग लिहलें।कई साल ले आयोजन  खूब सुघर भइल।"उत्सव प्रकाश" मा एकर एक झलक देखी सभे:---

छंद :--

कार्तिक चतुर्दशी कृष्ण की,प्रतिबर्ष जब जब आवहीँ।

अति हर्ष अरु उल्लास से हनुमज्जयन्ति मना वहीं।।

करि विविध भाँती सृंगार पूजा भोर आरति गावहीं।

संगीतमय मानस परायण करहिं पाठ सुनावहीं।।

दोहा :----मानस पाठ अखंड करि गावहिं मंगल साज।

अहो रात्रि का जागरण करता विप्र समाज।।

चौपाई

प्रति संबत अस होइ अनंदा।

जूटहिं  बहु गायक कवि वृंदा।।

गायक दिन संगीत सुनावहि।

सकल ग्राम बासी सुख पावहिं।।

रात होइ जब कवि सम्मेलन।

कवि रचना सुनि सुनि विहँसे जन।।

हास्य व्यंग के छंद सुनाते।

गीत गजल सबके मन भाते।।

मुक्तक चार चारू कवि देता।

भोजपुरी पुनि मन हर लेता।।

जन्म महोत्सव सोहर गावहि।

प्रभु पद पंकज शीस नवावहि।।

जिन्ह कर रचना अधिक सराही।

बार बार ते अवसर पाहीं।।

संतत बहइ काव्य के धारा।

कहत सुनत होइहिं भिनुसारा।।

दोहा:---

त्रय दिवसी यह कार्यक्रम होइ रहे हर साल।

"लालदास "को सुख मिले, पुरजन होत निहाल।।

शिव रात पर्व जब आवेला ब्रह्मेश्वरनाथ खूब प्राकृतिक श्रृंगार कइल जाला। बाबा विवाह होखेला,रामायण गवाला।"उत्सव प्रकाश" से एगो सुघर छंद मा चित्रण देखीं:--

छंद :---

माथे महामनि मौर राजत, बौर जौ बाली भली।

बिच बीच कुसुम धतूर के,मंदार कुसुमंन के कली।।

भस्मी विराजत अंग पर,सिर सोह गंगा निर्मली।

शिव बाम भाग विराज गौरी हिम सहित मैना लली।।

करि धूप दीप अनेक विधि,नैवेद्य विविध लगावहीँ।

आरति एकादश वर्तिका सजि करत अति सुख पावहीं।।

एहि भाँति पाणिग्रहण के शुभ साज सकल जुटावहीँ।

शंकर विवाह सजाई मंदिर,"लालदास" रचावहीँ।।

दोहा:--

फागुन कृष्ण त्रयोदशी कहें जिसे शिव रात।

प्रति संबत उत्सव करहिं,हर्षित पुलकित गात।।

हमार आगिल पीढ़ी भी इहे संस्कार पवले बा।उहो लोग अपने कमाई से मंदिर गर्भ गृह सुघर सङ्गमर्मर पत्थर लगवा के  खूब सूरत बनवा दिहलें। साथे साथे लागि के सब त्यौहार पर गाँव जालें ,बड़का लड़िका खूब मन लागेला। हमार उत्साह बढ़ावत रहेंल।मन लगा के मेहनत कइके हमार लिखल रचना भी प्रकाशित करावत रहेल।अब हमनी के काशी में रहिला नित्य नियम से पूजा  करे खातिर एगो पुजारी नियुक्त कइल बाटे, जवन सुबह शाम राग भोग कै रहल बाटें।उनका महीनवारी पगार दिहल जाला।

भगवान श्री ब्रह्मेश्वरनाथ जी कृपा हमनी के पूरे परिवार पर बरिश रहल बा।सब सुखी सम्पन्न बाटे।कुलिये त्यौहार पर टोला बड़ छोट सबही शामिल होला, मिलजुल के गाई बजाई,भरपूर आनंद उठावेला।।

एह बार मंदिर वार्षिक श्रृंगार करइ खातिर जब गॉंव गइली उत्सव प्रकाश से स्थापना के विषय मे कुछ रचना फेसबुक पर डाल दिहलीं, जवना के पढ़ी के हमरे परिवार के छोट भाई जवन भोजपुरी साहित्य में लब्ध प्रतिष्ठित बाटें, हालइ में भिखारी ठाकुर सम्मान से सम्मानित कइल गइल ,जयशंकर बाबू बहुत खुश भइलें। हमरा के बिचार दिहलें कि भैया श्री ब्रह्मेश्वरनाथ मंदिर के संस्मरण प्रकाशित होखे के चाही,रउवा एकरा के विस्तार देहीं।आज जे पी द्विवेदी के ,के नइखे जानत,उनके सत्प्रेरणा से हम संस्मरण लिखली ताकि अगली पीढ़ी ओके पढ़े  जाने समझे परिवार में संस्कार बनल रहे। एह विषय मा हम से उनका घंटा भर फोन पर बात बिचार भइल,अपना  धरोहर के उजागर करे बड़ ललक उनका मन मे भरल बा। हम उनके एह भावना कदर करत बानी बहुत बहुत धन्यबाद देत बानी।

हमरे कुल में एक से बढ़िके एक विद्वान कर्मकांडी कथाकार संगीतकार, कवि आलोचक रहल बानी,आज भी बाटें।ई माटी विद्वान कवि कोविद कलाकारन के जननी बा।हमका विश्वास बा कि अगिली पीढ़ी भी अपना धरोहर उजागर करी,पुरखन के कीर्ति मा चार चाँद लगाई।संतान उहे धन्य होले जवन अपने कुल के कीर्ति आगे बढ़ावत रहे।जइसन की बाबा तुलसीदास अपना  "रामचरितमानस '"मा उत्तर कांड में लिखले बान:--

सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।

श्री रघुबीर परायन ,जेहि कुल उपज विनीत।। दोहा संख्या:127

 गीता में भी भगवान श्री कृष्ण कहले बानी:--

" जातो येन जातेन जाति बंशः समुन्नति

अब  अंत मा श्रुति फल के रूप मे भगवान श्री ब्रह्मेश्वरनाथ जी से प्रार्थना कइले बानी कि अइसही  हमरे परिवार सब लोग उनका सेवा मा लागिके निरंतर सुखी रहस।।

दोहा:--

सम्मिलित संध्या आरती,नित्य चरन चित देहिं।

चरनामृत का पान करि बाल भोग जे लेहिं।।

तिन्ह के गृह सुख संपदा ,सदा होहि शुभ कर्म।

रहित ताप संताप से,सहित सबहिं सदधर्म।।

श्री ब्रह्मेश्वरनाथ के मंदिर उत्सव गान।

"लालदास "रचना सुखद करहिं श्रवन पुट पान।।

गृह परिसर में "लाल" के शिव मंदिर विख्यात।

नारी सुत बांधव सहित भजन करौं दिनरात।।

इति शुभम


हीरालाल द्विवेदी "लाल"

ग्राम -बरहूँआ  पो0- सैदुपुर ,चकिया,चन्दौली।उ0प्र0

Wednesday, October 20, 2021

मन के राग

 

कवनो देश के जातीय भावना के पहिचान उहाँ के लोक संस्कृति होले। लोक जीवने जातीय जिनगी के मूल सोत होला। एह सोत से निकसे वाली धारा समय के बदलाव के अपना भीतरि जोगावत आ समुआवत चलत रहेले। ई प्रान धारा चलला का बादो नीमन रहेले। बदलाव का बादो ओकर पहिचान ना बदलेले। लोकगीत लोक संस्कृति के जियतार सुर के संगम होखेला। लोक के विशेषता अपना संपूर्णता का संगे एह पारंपरिक लोकगीतन के जेकरे रचयितन के पता नइखे, के मन के राग में मिल के सुन्नर कंठन से मधुर सुर में सुनात रहेले।

            अनघा भाव के थाती से भरल-पूरल हमनी के जिनगी के सभेले पुख्ता पहिचान एह गीतन का सोझा अपना के बचावे क बीपत घहराइल बा। मने लोकगीतन के गवें-गवें बिलाए के समय नियरा गइल बा। भा कहल जाव कि लोकगीत गवें-गवें बिला रहल बानी। एकरा पाछे कई गो कारन बा। सेतिहा फिलमी सोच, छेहर भाव आउर अश्लील गीत-गवनई हमनी के सांस्कृतिक धरोहर एह लोकगीतन के बहुते बाउर ढंग से प्रभावित कइले बा। एकर असर नवही पीढ़ी आ अदमिन से बेसी मेहरारून पर भइल बा। ई ढेर चिन्ता के बाति बा। काहें से कि मेहरारून के अपना संस्कृति से गहिर लगाव होला। बियाह,बरत,पूजा के बेरा गाये जाये वाली गीतन में अब पारंपरिक गीतन के जगहा फिलमी तरज के गीत-गवनई शुरू हो गइल बा। जवन हियरा के बेधेले।    

            एह बाति के सोझा राखत बेरा नवके क बिरोध आ पुरनके क तरफदारी नइखे करत। नवका के सोवागत करे खाति हम तइयार बानी बाकि ओकर झोंका हमनी क दीयरी बुतावे खाति अड़ियाइल होखे त अइसना में हमार का गलती बा। अइसना में सोवागत करीं त कइसे करीं? नवके दियरी के नवकी जोत से ?नवकी जोत खाति दियरी में नया तेल आ नई बाती चाही। अगर नीमन आ भरल-पूरल चीजु लेके नवकी जोत आ रहल बा त ओकर सोवागत बा आ ना त बरिजे खाति हम विवश बानी। इहाँ त ई हाल बा कि नवकी जोत पुरनका तेल सोखि के आ बाती के जार के हमरा भरमावे ला तइयार बा। तेल ना होखी त बाती जरिये नु जाई । भइया ! हम दसो नोह जोरि के क़हत बानी कि अइसन बिलवावन चमक आ जोत हमरा ना चाही।

            उठस सुर, लय आउर ताल आ अश्लील गवनई हिया के भइबे ना करी। जब हिया के नीमने ना लागी त सब बेकार। आचार्य शुक्ल कविता के भाव के सभेले ऊंच पिढ़ई पर बइठवले बाड़न। फेर एकरा के छोड़िके हम मुरदाह से अपना के कइसे जोड़ीं।

            हमनी के पारंपरिक गीतन में लोक-भाव के लमहर थाती भरल बा, उहे जिनगी के खजाना ह। एह दुनियाँ के मजगर धरोहर ह। जवन जिनगी के धड़कन के आहट देत सभे से कटल आ बेगर कहले सभे कुछ बोल जाला।

            आईं सभे ! एह रस भरल समुन्दर के एक चुरुवा जल पी के गर तर कइल जाव। देखीं, का भेंटाला ! कुछ हुलास,कुछ थिरकन भा कंपकपी भा कुछ उठ्ठस भा दुख-तकलीफ भा कुछो आउर...! थोर ढेर तकलीफ़ो होखे, त माफ करेम-

            दुख सहि के सुख पवला के बिसवास के संगे।

                        एगो कहनी कहे जातानी, जवन कहलो बा आ नाहियों कहल बा। हम जानतानी कि कल्पना सिरजना खाति जरूरी होला। बेगर कल्पना के सिरजना होइये ना सकेले। अगर रउवा मानी त हम कहेम कि कल्पना कवनो बाउर चीजु नइखे। उ बिना आधार के ना हो सकेले। जथारथ के चाह कल्पना के बिरोधी ना बलुक सहजोगी होला। बेगर कल्पना के मनई के जिनगी संभव नइखे। चलीं, एकरा छोड़ीं, फेर कबों समुझल जाई, त अब हम कहनी कहे जा रहल बानी।

            भइया ! एगो गाँव में एगो बोधन बाबा रहत रहलें। बोधन बाबा के एगो दुलरूई कनिया रहे, जवना के नाँव पान कुँवर रहे। पान कुँवर बहुते सुघर-साघर आ शीलवती कनिया रहलीं। उनुके सुघरई के जे देखे उ देखते रह जाय आ उनुके सुघरई के बखान करत बेर जरिकों न अघाय। पान कुँवर अपने बाबा के बहुते दुलरुई रहलीं। उनुका सुघरई पर उनुका बाबा बखान करत कहें-

'पनवा के नाई पातरि सोपरिया अस ढुरहुर हरदी अइसन पीयरि हो।'  

            अब तनिका पान के बारे मों सोचीं-कतना रसगर,मनहर आ पारदर्शी होला। अइसने उनुका शरीर के बनावट रहे। कवि के संतोष ना भइल त आगु लिखलें सोपारी लेखा चिक्कन आउर रंग हरदी लेखा पीयर, टहक।  ई कवनों कवि के कल्पना हो सकेले बाकि उनुका सुघरई रहल अइसने। पान कुँवर  गवें-गवें बड़ होखे लगली। ओइसही उनुकर सुघरई आउर निखरे लागल। एक त सुघ्घर ओपर से जवानी के  देहरी पर डेग धरत बेटी के देखि के कवनों बाप के नीन उड़ी जाले।

            बोधन बाबा पान कुँवर खाति बर ढूढ़ें लगलें। भाग- दउड़ के बियाह तय क दीहले। दिन नियरात-नियरात लगे आ गइल। बियाह के विधि-बिधान हरदी आ माड़ो के संगे होला। मने मड़वा के संगही कनिया के अपनही घर में पिया के घरे जाये के अभ्यास करावल जाला। जब पान कुँवर के घरे मड़वा छवाये लागल, ओह घरी पान कुँवर के मन के भाव कवि उनुका बाबा का सोझा रखले बाड़ें। ओह घरी मेहरारू लोग गावेलीं-

झाँझर मड़उवा जिन छवइहा मोरे बाबा,कि लाग जइहें सुरुजू  कइ जोत।

            ई गीत उहाँ छवात माड़ो से बेसी पान कुँवर के जिनगी के चिंता के बखान करि रहल बा। पान कुँवर सगरी कनिया लोगन के प्रतिनिधि का रूप में उहाँ बाड़ी। पान कुँवर अपने बाबा से आश्वासन चाहत बाड़ी कि उनुके दुलरूई बिटिया के ससुरे में तनिको सा दुख-तकलीफ न होखे। बाबा उनुके मन के भाव बूझ जात बाड़ें आ अपने बिटिया के आस धरावत  कहतारें- 

'कहतू तs ये बेटी तमूवाँ तनवती, सुरुजू के करतीं अलोप।'        

            ए बेटी! अइसन जनि कहs। तू कहबू त हम अइसन तम्मू तनवा देम जवना से सुरूज़ ढ़का जइहें। मने अइसन मजगुत घर तहरा हम देम जवने के नियरे कवनो दुख-तकलीफ चहुंपबे ना करी। वैज्ञानिक लो के बुद्धि एकरा दंभ आ विद्वान लो एकरा झूठिया क आस बोली आ बस के बहरा के बाति बताई। बाकि अइसन बाति नइखे,अपना औकात से ढेर आगे बढ़िके केकरो ला सुरक्षा के आस बन्हावल मुरुखई ना बलुक गहिराह परेम के बाति होले। अइसना में कवनो बाप अपने दुलरूई बेटी खाति का-का ना सोच सकेला। चाहे जइसे होखे, अपना दुलरूई बेटी के आस बन्हइबे करी। अइसन ना कइला पर उनुकर कुल्हि तपस्या बिरथा नु हो जाई।

            अइसने आस बन्हावे वाले सुख के परिखे में ना जाने कतने बरिस से घूमी रहल बाड़ें। अपना बिटिया के जोग दुलहा खोजे खाति कहवाँ-कहवाँ के धूर नाही छनलें। उ जात रहलें आ लउट के खलिहा चलि आवत रहलें। हर बेर अइसने होत रहे , थकला का बाद उनुका लागत रहे कि उनुकर बेटी कुँवारे रहि जाई।

            'पूरुब में खोजली बेटी पछिम में खोजली

                        खोजि अइली देस संसार।

            तोहरे सरीखे बेटी वर नाही पवली,

                        अब बेटी रहि जइहें कुँवार।'

                                    इहवाँ सरीखे सबद विचार करे जोग बा। वर त हर गाँव में बाड़ें, गाँव के घर-घर में बाड़ें। बाकि पान कुँवर के जोग वर कहीं नइखे मिल पावत। कतों घर बा त वर नइखे आ कतों वर बा त घर नइखे। बाबा के मन के भावते नइखे, त कइसे तइयार होखें। सुन्नर घर आ वर बाड़ें, इनको कमी नइखे। बाकि उहाँ चहुंपे खाति बाबा के समरथ नइखे। थाकल बाप के लागता कि उनुकर बेटी कुँवारे रहि जाई। ई गीत अजुवो के लइकिन के बाबूजी लो के मजबूरी आ उनुका लो के मन के टीस के एकदम नीमन से उकेर रहल बा।

            बेटियो भारत के रहनिहार बिया। संस्कार से भरल-पूरल आ आतमा के आवाज सुने वाली। उ अपने बाबूजी के पीर बूझ गइल। उ आपन जिनगी दाँव पर लगा सकेले। उ अपना के मेटा के दोसरा के खुस राखे वाली भावना से अपने करेजा पर पाथर राखि के बाबा के दुख हर लेवेले। अपना बुद्धि से अपने बाबा के राह असान बना देवेले। अपने बाबा के सोझा आपन विचार राख़ देवेले-

            "साँवर वर देखि जिनि भरमा बाबा,

                        साँवर सिरी भगवान । "

                        ए बाबा ! तूँ साँवर वर  देखि के ओकरा के हमरा जोग नइखे,अइसन सोचि के भरम में मति पड़ा। साँवर होखल कउनों बाउर बाति नइखे, साँवर त भगवान सिरी क्रिसनों  रहलें। अब बताईं,आपन बलिदान देके, अपना के दुख चहुंपा के दोसरा के सुख चहुंपावे वाली भावना आउर कतों भेंटाई?

            त केनहूँ  बाति बन गइल। आगु क हाल ढेर अझुराइल बा-

                        जब बेटी ससुरे जाये लागेले, त माई बाबूजी के करेजा फाटे लागेला। गलानी,छोभ,करुना मतिन भाव से मन भरि जाला। कंठ रुन्हा जाला। इहाँ खुसी आउर दुख दूनों बा। बाकि अपना आँखि के पुतरी से बिछोह नाही सहाला आ माई-बाबूजी लो बउराह लेखा हो जाला आ फेर ओरहनों देला लो-

 

'खोनवन-खोनवन बेटी दुधवा पिअउली

            दहिया खिअउली साढ़ीवाल ।

कोरवाँ से कबों नाही भुइयाँ उतरली

            रखली मs अँखिया के छाँव।

एकहु नुकुति नाही मनलू मोरि बेटी

            लगलू  सुन्नर वर साथ। "

                       

            देखीं नु,कतना बड़ अझुरहट बा। 'अर्थो हि कन्या परकीयमेव' सभे जानेला। तबो हिया पर बुद्धि के सासन ना चल पावेला। बेटी वर का संगे खुस होलीं। बाकि माई-बाबूजी खुसी का संगे गहिराह दुख  के समुंदर में डूबत-उतिरात रहेला। अइसना में केकरो बुद्धि मरा जाले। कालीदास के एह दुख के अनेसा रहल। काश! कालीदास ई दुख भोगले रहतें त सभे बाबूजी लोगन के पीर के बानी मिल गइल होइत। बाकि पान कुँवर के ई कहनी हर कुँवरि के कहनी बा। आउर बोधन बाबा सभे के बाबा के प्रतिनिधि बाड़न। भाव के अइसन गहिराह पसराव केकरो संवेदना के जगा देवेले। एहसे बढि के जियतार आउर भाव का हो सकेला?

            ई जवन कहनी हम कहनी ह, ई त एगो छोटहन परतोख भर ह। रउरा सभे के समरथ भाषा में गहिराह संवेदना से जुड़ल कतने कहनी गाँव के चप्पा चप्पा पर भेंटा जाई। प्रेम उन्माद के,विरह के अगिन के, बसंत के हुलास के , रिमझिम बारीस में ठाट से मेंहदी से सिंगार के, अतने ना जाड़ में किकुरत बुढ़िया ईया के, जेठ के तातल गरमी में झंउसात बूढ़ बाप के,कुँवार बहिन के सपनात शील के,बाझिन के बेकहल दरद के, हत्या आउर आत्महत्या का बीच झूलत,जीयत-मुअत किरसित असहाय के। मने जिनगी के हर हाल के, हर पल के बतकही के । इहाँ न रउवा ई कुल्हि सुने के साहस जुटा सकेनी, ना हमरा अतना कुल्हि सुनावे समरथ बा। हम त रउवा सभे के एहर के एगो रहता भर देखवनी ह। हमारा बिसवास बाटे की रउवा उहाँ जरूर जाएम। उहाँ रउरा के पूरा ना त  आधा-तीहा जीयत जागत लो जरूर मिलिहें।

'' एह जम्म ठिग्गाह गयउजिहि सिर खग्ग न भग्गु

तिख्खा तुरिय न तोरिया गोरी गले न लग्गु॥"

            हम देखले बानी एह उपजाऊ भूई से जामल एह लोकगीतन के मिठास लब्ध प्रतिष्ठ कवि लो के आ रसिक लो के अपना ओर जबरी खींच ले आवेले। सुन्नर मेहरारू आ लइकिन के कंठ से निकरे वाली सुर लहरी से लागता उ लो के हिया के राग क राधिका उपरिया जालीं। एही से जयदेव कहले बाड़ें-

 

रति सुखसारे गतमभिसारे मदन मनोहर वेशम।

न कुरु नितम्बिनी गमन बिलम्बिनी मनुसरते हृदयेशम'

धीर समीरे यमुना तीरे  बसति बने बनमाली

गोपी पीन पयोधर मर्दन चंचल कर युगशाली।

 

 

मूल रचना- मानस राग

विधा- निबंध

मूल रचनाकार - डॉ उमेश प्रसाद सिंह

भोजपुरी भावानुवाद - जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

 

Friday, April 9, 2021

का पकड़ीं ...का छोड़ीं

 

का जमाना आ गयो भाया,गियान के गँउखा के बेवस्था पर लोग ढीठ होके अंगुरी उठा रहल बाड़ें।अंगुरी उठावे वाला लोगन के भीतरि जरिको हिचिक नइखे। मरजाद के बात बेमानी हो चुकल बा। छींटाकसी के बाति मति सुनी भा सुनाईं। भाषा के परिभाषा देवार में आपन मुँह रगरि-रगरि के घवाहिल हो चुकल बिया। ओहपे अलंकार आ व्याकरण के मरहम कामे नइखे करत। गहिर घाव पर मरहम कामो ना करसु। ई जरि-मनी छिलाइल-छिछोहाइल जगहा ला होखेला। गहिर घावन में त ललकी दवाई में डूबावल लम्मी-लम्मी बत्ती डारल जाला आ उहो घाव भराये में लम्मे समयो लेला। कहल त इहो जाला कि समय बड़ से बड़ घाव के भर देला। बाकि कुछ लो अइसनों भेंटाला जे अपने घावन के कुरेद-कुरेद के जियतार राखेला आ ओकर दरद महसूसत रहेला। अइसना में मन के भीतरि परल गाँठ सुखात नाही बलुक लोग ओकरा के जोगा के राखेला आ रहि-रहि के ओकरा खाद-पानी देत-लेत रहेला। थोर-ढेर गियान लेके कुल्हे जीवा-जन्तु एह धरती पर जामेला आ सभेले जियादा बुद्धि-गियान के मतरा मनई लो में होला। ई मनई लो अपना समय पर देश आ समाज खाति नीक-बाउर सउंपबो करेला। ओह सउंपलका के अलग-अलग लो अलग-अलग नजर से देखेला आ अलग-अलग बतकुचन करत देखा जाला। अइसन कुल्हि बतकुचन के बखान कतना बयान करे जोग होला, ओकरा के ओह लोगन के बुद्धि-गियान पर छोड़ीं।

            समय त उहो रहे जब एक के दुख-लकलीफ में सगरी गाँव जुट जात रहे। एक के इजत पूरे गाँव के इजत मानल जात रहे। गाँव के कवनो लइकी के बियाह में सगरी गाँव अइसे जुटत रहे, जइसे उ लइकिया ओकर आपने लइकी होखे।साँचो में लोग एकरा के जीयत रहे। चउवन के चारा देवे के आपन सौभाग्य मानत रहे। जुआ में बैलन के नधले अपना बघार ओर जात किसान के घर-परिवार के संगही देश-समाज के चिंतो रहे। भलही उ किसान छान्ही-छप्पर में जिनगी बितावत रहे बाकि धूर-माटी में खेले वाला लइकन में देश के भविष्य देखत रहे। ढेर उल्लास के संगे देश के सेवा में अपने करेजा के टुकड़ा के सहजे नेवछावर करे में जरिको देर ना लगावत रहे। एहु घरी कुछ किसान लोग बाडर पर बइठ के सोझबग मनई लो के नोकसानों पहुंचावे में देर नइखे लगावत। देश के मरजाद के बाति त करबे मति करीं। कुछ मुट्ठी भर लो देश के सम्मान के धूर में मिलावे खाति अकुताइल देखाता।आगि में घीव डारे कुछ नामचीनो लो अपना जोगाड़ में चहुंप के बात के बतंगड़ बना रहल बा। खेत में कोड़त-कमात लो किसान ह कि महँग-महँग गाड़ी में डोलत लो किसान ह कि जवन करज में डूबत आपन जान दे देत ह, उ किसान ह। एकरो निर्णय के कुछ तथाकथित गियान बघारे वाला लोगन पर छोड़ीं। 

            कबों धरम मनई के जिनगी के नीमन से आ जोगा के चलावत रहे। ओकरा के संस्कारित करत रहे। बाकि आजु अइसन होत कतों देखाते नइखे। लोग अपना फयदा का हिसाब से धरम के परिभासित कर रहल बा,ओकरा देश आ समाज खाति सोचे के फुरसत नइखे।धरम के आजु चुनाव लड़े आ जीते के हथियार बना लीहल गइल बा। एह में सभे सउनाइल बा। धरम आ राजनीति के घालमेल बस बउरपन ला हो रहल बा। कब केकरा के बाहरी आ केकरा के भीतरी कहे लागी लो,रउरो के ना बुझाई। एक देश के भीतरि कतना आउर देश ह,ई जानल सोच के बहरा के बाति हो गइल बा। जब ई बाति बुद्धिजीवी लो के मान के लोहा नइखे रह गइल त मनराखन पांडे भा भुंवरी काकी के कहवाँ से पल्ले पड़ी। एह लोगिन के पल्ले पड़लो  से कवनों फ़ायदा होखी, एह में सभे के लेखा हमरो संदेह बा। काहें से कि भुंवरी काकी के इहाँ के धरम आ संस्कार बुझइबे ना करे आ मनराखन हर घरी सुल्फा पी के मस्त रहेलें। कहाँ का बोले के चाही, उनुका के इहे ना बुझाला, फेर सोच-विचार करे के काम उनुका से कइसे होखी। हमनी सभन के का पकड़े के बा आ का छोड़े के बा,एही सोच का संगे मगज़मारी करत रहे के बा।हम त एह मगज़मारी में अझुराइल बानी,रउवा अपनों ला कुछ नीक-बाउर सोचबे करब,ई हमरा बिसवास बा।अपना एही बिसवास का संगे रउवा सभे के छोड़ रहल बानी। फेरु हलिए मिलल जाई।      

 

जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता       

Friday, March 12, 2021

खेला होबे कि खेला खतम.....?

 

का जमाना आ गयो भाया, एह घरी अलग-अलग जगह पर अलग-अलग 'खेला होबे' के कहानी चल रहल बा। बाडर पर एगो अलगे खिस्सा नधाइल बा। किसान के माने मतलब लोग अइसन बना देले बा कि सभे के मन अउजा गइल बा। लोगन के बुझाते नइखे कि असली किसान के बा आ के नइखे। सोचनिहार लोग कई फाँक में बंटा गइल बा। कुछ लोग जायज आ नाजायज के पहाड़ा पढ़ रहल बा। देश के मान-सनमान ताख पर राख़ के कुछ लोग आपन-आपन दोकान खोल के भोंपू बजा रहल बा। कुछ लोग उहाँ अइसनो बा जे सोझा लउकत चिजुइयन का ओर से आँख घुमा के ओकरा उपस्थिति के नकारे में जरिकों हिचकिचात नइखे। तीन गो कानून के लेके जतने मुँह ओतने बात। कुछ लोग ओकरा बाउर बता रहल बा आ कुछ लोग नीमन। सभे अपने नजरिया के सही ठहरा रहल बा। 'ठेका पर खेती', ई त कवनो नई बात नइखे। पहिलहुं होत रहे आ  अजुवो हो रहल बा। बाकि केहु के जमीन ठेका वाला कब्जिया लेले होखे, अइसन त आजु ले ना सुनाइल।    

            काल्हु तक जे एह तीनों कानूनन के नीमन बतावत ना थाकत रहे आ ओकरा के अपना बाबूजी के इच्छा के सनमान मानत रहे आ भोंपू पर आपन चउकठा चमकावत रहे,अब सुल्फा मारके अलगे राग गावत देखात बा। सब त सब मनरखनों आपन भकोल बोल बोल रहल बा। बुझात त इहो बा कि 2022 के तइयारी में केहुवो कवनो कोर-कसर नइखे छोड़ल चाहत। इहवाँ बबवा आपन लठ्ठ में तेल लगा के तइयार बइठल बा कि लोग कुछों गड़बड़ करो आ बबवा आपन लठ्ठ फेरो। बन्न-बुन्न वाला खेला एही से उत्तर प्रदेश में ना भइल। लाल किला वाला खेला का चलते हरियरकी टोपी वाले के पुक्का फार के रोवे के पड़ गइल।फेर त महँग-महँग गाड़ी वाला किसान लोग हरियरकी टोपी वाला के चारु ओर घूरियाए लागल। हरियरकी टोपी वाला के दोकान चल निकलल। नेता-परेता आ रंग-रंग के भोंपू वाला लोग उहाँ चहुंपे लागल। फेर उ एगो पंचइती के नया खेला शुरू क देलस।

            एह घरी 'खेला होबे'  ढेर मसहूर हो रहल बा। ढेर लोग एकरा में लागल बा। खूबे रेकाड बज रहल बा। लइका, बूढ़, जवान सभे एह घरी इहे गा रहल बा। बाकि कवन 'खेला होबे' ई केकरो पता नइखे। रैली से रैला तक, गली से मोहल्ला तक, गाँव से शहर तक, जिला से प्रदेश तक आ प्रदेश से देश तक  इहे चल रहल बा। चलन में त एह घरी 'जय श्री राम' जरिको कम नइखे। दूनों में एगो बरियार अंतर बा। 'खेला होबे' के कुछ लो छाती चाकर क के बोलता, त कुछ लो चुटकी लेता बाकि 'जय श्री राम' बोलला पर कुछ लोगन के मिरचाई लाग जात बा। बउवाय- बउवाय के लोग आपन कपारे क बार नोचे लागता। कुछ लो त इहो कहता कि 'जय श्री राम' इहवाँ ना बोलाई त फेर कहवाँ बोलाई। खिसिआई के अइसनका लोग इहो कहि देता कि हमनी के पाकिस्तान में ना नु बोले जाएम। खैर रउवो सभे जानतानी कि उहवाँ बोललो ना जा सकेला। बड़का बाबा त मुस्कियात कहलें कि बुझाता कुछ लोगन के खेला खतम होखे वाला बा। 

             मनरखना 'खेला होबे''खेला खतम' का बीच में अझुराइल बा। एगो चलन में त इहो बा कि मनरखना के पितिआउत भाई त दोसरा के का 'पहिरे के चाही' भा केकरा से 'मिले के चाही' एह दूनों काम ला अपना दोकान से  साटिक-फिटिक बाँटे के जोगाड़ जोड़ रहल बाड़ें।कोरोना काल के बाद ढेर लोगन के दोकान बन्न हो चुकल बा भा बन्न होखे वाला बा,अइसना में साइड बिजनेस कइल गलत ना कहाई, बाकि बूड़े के चानस ढेर लउकता। ई जनला का बाद मनरखना अपने  पितिआउत भाई से कुछ रिसिआइल बुझाता। बाकि डरे बोल नइखे पावत। अब डर ई कि मनराखन के बेगर सुल्फो फूंकले लोग इहे कहेला कि लागता कि डोज़ मार के आवता। बेचारे के हाल अबरे के मेहरी भर गाँव के भउजी लेखा हो गइल बा।

            भुंवरी काकी मनरखना के कुछ काम-धाम जोग बनावल चाहत बानी बाकि जोगाड़े नइखे लागत। अब काकी के, के समझाओ कि हर काम अपना समय पर नीक लागेला आ मोका रोज-रोज ना मिलेला। एही बीचे कुछ लो भुंवरी काकी के टँगरी खींचे में लाग गइल बा। ई उ लोग बा जेकरा के आजु ले भुंवरी काकी आपन बूझत रहल बिया। मोटा भाई के डंडा आ बड़का बबवा के मंतर के आगे  भुंवरी काकी के खोपड़िया चकरघिन्नी लेखा घूमे लागल बा। ई सब समय के चक्करे नु कहल जाई कि भुंवरी काकी के घुरहु-सोमारू सभे गियान दे रहल बा, ई देखि के मनरखनों के मन करुआइन हो गइल बा। बाकि डर के मारे मनरखना बेचारा अपने माई से कुछ पूछ भा कहियो ना पावेला, का पता काल्हु के माई कुछ आउरो ना छीन ले। मने खेला होबे त इहों बा बाकि अलहदा। खेला होबे आ खेला खतम के फेरा में सभे औंजाइल बा, बाकि करो त का करो आ जनता ई दूनों देखि के चवनिया मुस्की मार रहल बा। अब त रउवो मुस्किआईं , हम चलनी अपना राहे।

 

जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता