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Friday, November 20, 2020

ए छठी मइया

 

बरिसे बरिस पूजिला पाँव, ए छठी मइया

छूटित बझिनिया के नाँव, ए छठी मइया॥

 

रूनुकी झुनुकी एगो देतु बिटियवा

आइत दमाद मोरे ठाँव, ए छठी मइया।

छूटित बझिनिया के नाँव, ए छठी मइया॥

 

ठुमुकी ठुमुकी चली बिटिया अँगनवा

बनी दुनो कुलवा के छाँव, ए छठी मइया।

छूटित बझिनिया के नाँव, ए छठी मइया॥

 

बिटिया के गइले उदासी भवनवाँ

बिहँसी ससुरवा के गाँव, ए छठी मइया।

छूटित बझिनिया के नाँव, ए छठी मइया॥

 

 

·       जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

Thursday, November 19, 2020

सूपवा बोले त बोले----!!

 

का जमाना आ गयो भाया,जेने देखी, भउका भर-भर के गियान बघारल जा रहल बा। गियान बघारे का फेरा में दरोगा, सिपाही से लेके जेब कतरा आ चोरन के सरदारो तक लागल बा लो। अपना लोक में एगो कहाउत पुरनिया लोग क़हत ना अघालें कि 'सूपवा बोले त बोले चलनियों बोले, जेम्मे बाटे बहत्तर छेद', एह घरी छेदहिया चलनियों गियान बघारे में लागल बिया। जेकरा में बहत्तर छेद बा, उहे आजु बृहत्तर देखात बा।  ई कुल्हि देख-सुन के मनराखन पांडे के खोपड़िया के चकरघिन्नी बन गइल बा।  कबों एने कबों ओने घुरियात फिर रहल बाड़ें। केकरा के नीमन आ केकरा के बाउर बोलें, उनुका बुझाते नइखे। आ बुझाव कइसे, काल्हु तलक जे मुँह लुकववले डोलत रहल ह,उहो आज दूध के धोवल बनि के मुसुकी मारि रहल बा। गियान उहो बघार रहल बा,जेकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चोरकटई में सरनाम रहल बा। ई देखि के मन आउर खटउर हो गइल कि अबले जे उनुका तरवा चाटत रहल बा, उहो उनही के गरियावत देखात बा।    एगो मड़ई लगा के चिरकुटवा के चउधरी बने के चस्का लाग गइल बा। भलही सिवाने गोड़ राखे भर ठीहा न होखे, खेत-बारी के कवन बात करल जाव। चिरकुटवा अपना संगे 2-4 गो नीमन लोगन के हथजोरिया क के जुटा लेले बा। जेकरा केहुओ पुछनिहार ना होखेला उ लो त अपनही लिहो-लिहो क के जुट जाला। मने रंगवा सियरो हुआं-हुआं करत घुरियाइल बाड़न स। रंगवा सियरा उहे ह जवना के इहाँ के चोथल-बिटोरल आ एने-ओने से छीन-झपट के दोसरा के चिजुइयन के आपन कहे आ बरियारी सियरन के मुखिया बने के पुरान सवख ह। कतनी बेर बारीस भइला पर ओकर रंग उतर गइल बाटे, बाकि गंव लगते केनियों से रंग में नहा के फेरु दाँत चियरले आइये जाला।

            राजनीति के मौसम में रंगवा सियार त ढेर लउकेले सन आ बेंग लेखा एनी-ओनी फुदुकबो करेले सन। कब कवना के अतमा जागि जाले, पते ना लागेला। जवना पाटी में हीं-हीं दादी करत,जूठन चाटत, गुणगान करत नाही अघालें, अगिला दिने  अलगा चोला पहिर के ओह पाटी के कोसत भेंटालें, त सुननिहार तुरते कही देवेलन कि बुझाता उहवाँ टिकस ना मिलल होई आ इहाँ मिल गइल। मने जहवाँ चाटे आ लूटे के जोगाड़ उहे नीमन आ बाकी सब बाउर। ई बेमरिया राजनीति से होत पहिलही से साहित्य में पइस गइल बा आ जहां-तहाँ लउके लागल बा। एही से मनरखना के खोपड़िया गरमाइल बा। अब ई बाति मनराखने तक नइखे रह गइल, सभे लउके लागल बा। जेकरा के लोग गम्हीर बुझत रहल ह, उहो चटकारा ले ले चासनी चाट रहल बा। बाति से बाति निकरे ले त ढेर दूर तलक ले जाले। राज मिस्तिरी से कंप्यूटर के प्रोग्राम लिखवाइब त लोगन के नीमन त नहिए नु लागी। बाकि आजु-काल्हु इहे हो रहल बा। सभे आपन-आपन सांतर-बेंवत देखत बा आ अपनन के जोगाड़ लगावत बा। भलही ओकरा नकभेभनी पोंछे के सहुर होखे भा ना होखे।

            चिरकुटवा जब तक नोकरी करत रहे, लोग कहेला कि कबों  नीमन से आपन काम ना कइले होखी। गरे में भुक-भुकवा लटकवले एने-ओने घूमत रहे। अपना अधिकारी के ले-देके पटवले रहे। एह घरी चिरकुटवा रिटायर हो गइल बा, खलिहर बा। कहे वाला त इहाँ ले कहेलन कि चिरकुटवा पुरान गिरोहबाज ह। पहिले एगो गिरोह में रहे, जवना गिरोह के लोग एक दिन केकरो गरियावेलन आ अगिला दिने ओकर तरवा सुहरावेलन।  फेर मड़ई छावल  आ ओहमें पाछे से लुकारी लगा के चरचा में बनल रहला के नीमन उपाय लागल, त चिरकुटवा उहे कर रहल बा। चिरकुटवा के ढेर लोग एजेंडाबाज कहेलन आ लागबो करेला। ओकरा से अकल के बाति त मतिए करी, न पहिले रहे न अब ले भइल। एक जना त इहाँ ले क़हत रहलें कि ओकरा के अकलदाढ़ उगबे ना कइल। बाकि चिरकुटवा अपना के सभेले बेसी अक्किलदार बुझेला। अपनही लेखा कुछ अक्किलदार लोगन के जुटावेला आ फेरु दोसरा के फिरकी लेला। ओकरा चक्कर में कई बेर नीमनों लोग फँस जाला, छपिटाला आ बाद में पछतइबो करेला।

            एह घरी चिरकुटवा एगो नया एजेंडा लेके आइल बा।अपनही लेखा कुछ लोगन के जोड़ के एजेंडा चला रहल बा। चिरकुटवा के एगो नया संघतिया मंगरुवा जवन अपना के सभेले बेसी  सभ चीजु के बिदवान बुझेला,उहो ओकरा संगे लागल बा। छपास आ देखास के बेमारी ओकरा भितरी ढेर गहिराहे ले पइसल बा। एह घरी मंगरुवा के हुआं में चिरकुटवा आपन हुआं जम के मिला रहल बा। ई दूनों मिलके ओह लोगन का खिलाफ एजेंडा चला रहल बा,जे कबों मंगरुवा के घास ना डालस। एह घरी दूनों मिलके कुछ लोगन मने एगो जाति विशेष के लोगन का खिलाफ एजेंडा चला रहल बा भा कहीं कुछ लोग एहनी दूनों से मिल के आपन-आपन भड़ास निकाल रहल बाड़न।अपने मनही अपना के सबसे बड़का सोचनिहार बूझ रहल बाड़न। ई साबित करे के कोसिस हो रहल बा कि बस एही जात के लोग साहित्य के चोरी करेला भा नीमन से ना परोसेला आ बाकि सभे दूध के धोवल बा। सावन के आन्हर बरहो महीना हरियरी देखेलन,ओहनी के आउर कुछ ना लउके मने सावन फागुन के मिलन समारोहवा तक ले।  रेफरेंस के बाति बढ़-चढ़ के करे वाला लो, दोसरका के लिखलका बाँचे में ना लजालें आ ओकर रेफरेंसों ना देवेलन बाकि गियान जरूर बघारेलन। कई गो लमहर लिखनिहार गजलगो दु-चार गो शबद बदलिके गुरुजी आ बाबूजी बनल फिरेलन बाकि केकरो के ना लउकेलन, विशेषकर मंगरुवा आ चिरकुटवा के त एकदम्मे ना लउकेलन। अइसनका ढेर दुलरुवा जी ,बाबूजी,भइया जी, बबुआ जी आ बहिन जी लोग बा,जे चिरकुटवा के लउकबे ना करे। अब बताईं भला मनरखना के खोपड़िया गरम होखी कि ना। अब ई बतिया रउरा करेजा में धक्क ले लागल होखे भा लागे, त पहिले आपन करेजा सँभारी आ फेर सभे ई कुल्हि देखत-सुनत आ गुनत-गिनत आ आपन कपार पीटत रहीं,मनराखन धइलें आपन रसता।

 

·       जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 

               (सम्पादक)

भोजपुरी साहित्य सरिता

Tuesday, April 16, 2019

चलीं बात करे के


का जमाना आ गयो भाया,बात करे के परिपाटी फेर से उपरिया रहल बा। बुझाता मौसम आ गइल बा,मोल-भाव करे के बा, त बतकही करहीं के परी। बिना बतकही के बात बनियो ना सकत। ई चिजुइए अइसन ह कि एकरे बने-बिगरे के खेला चलत रहेला। बात बन गइल होखे भा बात बिगर गइल होखे, दुनहूँ हाल मे बात के बात मे बात आइये जाले। हम कहनी ह कि एह घरी मौसमों आ गइल बा,बाकि इहाँ त बेमौसमों के लोग-बाग मन के बात करे मे ना पिछुआलें। जब बात उपरा गइल बा त एकरा के कहि के भुलवाइलो जा सकेला आ मनो परावल जा सकेला। अब ई अलग बात बा कि मन परवलो पर मन मे न आवे भा कवनों नया बात गढ़ा जाय। कई लोग बतावेला कि बात के कई गो सवादो होला, नीमन बात,बाउर बात,खट्टी बात,मीठी बात, करुई बात आउर जाने कतने तरह के बात होलीं स,सभेके उकेरे लागब त बरीस बीत जाई।  

       एगो बरीस त बीतिए रहल बा,त दोसरका बरीस कुंडी खटका रहल बा। अइसना मे एगो के बिदा करे के बा त दोसरका के सुवागत करे के बा। बिदा भा सुवागत दूनों मे कुछ न कुछ बात होखबे करी, होखहूँ के चाही। इहे त एगो तरीका बा जवना मे बन्न रहता खुलि जाला भा खुलल रहता बन्न हो जाला। सब कुछ नीमन-नीमन होखो, एकरा ला बात त करहीं के परी। फेर बात भलहीं कसोतर शुरू मे लागे बाकि बाद मे ओहमें मिठास आइये जाई। जब बात के बात निकलिए गइल बा, त मन के बात के बहाने हिसाबों-किताब के बात उठबे करी,भलहीं उ बतिया मीठ लगे भा तीत। सवाद त चाहे-अनचाहे लेवहीं के परी,भलहीं सवाद लेवे के फेरा में चाहे मुँह मे मिसरी के डली परो भा नीम के करुआइन रस परो, दूनों हाल मे रसपान करहीं के परी। बात चाहे उ प्रधान सेवक के होखो,राउर होखो भा हमार होखो,कुछ लोग त चटकारा लेबs करिहें, कुछ लोग अइसनो मिलिहें जे मीन-मेख निकारे मे अझुराइल होखीहें। अब बात उठल बा त मीन-मेख निकलबे करी,ओकर लेखा-जोखा उतिराइबे करी। मीन-मेख निकाले वाला लोग पहिलही दिन से गिद्ध लेखा आँख गड़वले बा, त कूल्ही बातन के तिक्का-बोटी करबे करी।

       बात के बात में अब ई बतावल जरूरी हो गइल बाटे कि एगो कहाउत ह केहू खाति बैंगन पथ्य आ केहू खाति बैरी एकर धियान राखल जरूरी बाटे। एही से मन के बात के समुझल आ समुझावल जा सकेला। आवे वाले बरीस मे जेकर सुवागत करे खाति सभे लोग अगराइल बाटे,ढेर लोगन के मन के बात करहीं के परी,पोथी-पतरा उलटे-पलटे के परी आ हिसाब-किताब देवे के परी। ई कुल्हि जनता-जनार्दन के कतना सोहाई,पता नइखे। तबो हिसाब-किताब त परोसहीं के परी आ परोसलो जाई, ई केकरा के केतना सोहाई,कहल ना जा सकत बाटे।अब जब हिसाब-किताब के बात शुरू होइए गइल बा त नीमन आ बाउर दूनों सोझा आई। कवनों खाति परसंसा मिली त कवनों खाति टँगरी खींचल जाई। एक-एक बात कई-कई तरह के बाद-बिवाद लेके पसरी,कुछ लोग ठीक मनिहें,त कुछ लोग बाउर कहिहें। बस गोलबंदी शुरू,बाकि जरूरत गोलबंदी के नइखे,जरूरत बा नीमन चीजु के लेके आगु बढ़े के,बीच मे अझुराइल मतलब सब गुड़-गोबर। कइल-धइल कुल्हि बेकार। हर बरीस के अनुभव कुछ न कुछ सीख दे के आगु बढ़ेला,एह बरीस के इहे सीख सही, सिर-माथे लगावल जाई। जवन बिरवा अंखुवाइल,ओहमे पतई निकले शुरू भइल बा, त ओकर बढ़ल आ हरियाइल समय के जरूरत बाटे,ओकरा के बढ़े के चाही,लहलहाये के चाही।ओकरे खाति जवन खाद-पानी चाही, ओकर जुगाड़ लगावे के परी।

       बात शुरू भइल बाटे त बात मे दम होखे के चाही,बात मे दूर तक ले जाये के तागत होखे के चाही,ओकरे रंग-रूप के बारे मे सोचल भा सोच के प्रतिक्रिया दीहल हर जगह जरूरी ना होखस, कुछ लोग इहो मानेला। एकरा खाति अलग-अलग लोगन के अलग-अलग तर्क हो सकेला,बाकि तर्क से सहमत होखल सभके ला जरूरी ना माने के चाही, मानलों ना जा सकेला। अस्तित्व भा अस्मिता के खाति जवन चिंता के बात लोगन के मन मे बाटे,ओकरा के प्रस्तुति ओही से जुड़ल जरूरी मानल जाला, बाकि इहो जरूरी नइखे कि एकरो सभे केहू मानो।कहल त इहाँ तक जाला कि धरोहर भा इतिहास बरियार भइला से सम्प्रेषण के तागत ना आवेले,कुछ लोग कवनों आउर कमी गिना सकेला,बाकि ओकरे अस्मिता के झूठलावल संभव नइखे, कुछ लोग एह सोच के बा, त बा। बाकि ओह लोग के आपन सोच दोसरा पर जबरी थोपल उचित त मानल नाही जा सकत।ओकरा ला कवनों तरह मनभेद के जगह कतों बनल भा बनावल उचित मानल अनुचित कहाई। मतभेद तरीका पर बा,अस्मिता पर ना, सोच पर ना।सोच सार्थक बा तबे नु ओकरा जमीन आ आसमान दूनों मिलल।

       जवना क्षेत्र मे बात के मूल रूप मे राखल भा राखे वालन के नीमन नजर से समाज देखल पसन्न ना करस,उहाँ पहिले एकरा खाति जगह बनावल जरूरी बा। उचित जगह से उचित मान-सम्मान के बात राखल ओकरा स्वरूप से जुड़ के ओकरे सुघरई के संगे आज परोसल जरूरी हो चुकल बा। जवन गलती पहिले भइल बा, जवन परिभाषा पहिले गढ़ाइल बा,ओकरा के तूरल आ ओह घेरा से बाहर झाँकल सगरी ऊर्जा के संगे जरूरी लागत बा। शायद हमनी के कुछ अइसन लोगन के मोका दे रहल बानी जा,जे फेर से कवनों नया सवाल उठा सको?भलहीं उहो लोग अपने समाज से होखस,विभीषण के उपस्थिति के नकारल ना जा सकेला।

       आजु हमनी के जवने बाति के सबसे ढेर कमी महसूस होले ओकर जिकिर एह बाति के बात मे करल जेयादा जरूरी बुझता। भोजपुरी भाषा, जवने के साहित्य,व्याकरण,गद्य,कविता भा गीत के धरोहर के संगे साहित्य के भंडार बरियार बा,तबो भोजपुरिया लोग आपुस मे मिलला पर अपने भाषा मे बतियावल नीमन ना बुझेला,सरम करेला।दिल्ली भा ओकरे नीयरे जब कवनों लमहर कार्यक्रम होला त ओहू मे कवनों ना कवनों बहाना लेके दोसर भाषा के प्रयोग कहीं न कहीं आपने कमी उकेरल बा। अइसने मे नोबल पुरस्कार के उदाहरण के का मायने बा,हमरा समुझ के परे बा, बाकि ई बात ढेर लोग कहेला। भोजपुरी के एगो आउर पहिचान बाटे प्रतिरोध,हमरे बिचार से आजु हमनी के सबसे बेसी जरूरत एकरे बा।ई हमार आपन निजी विचार ह, ई हम केकरो पर थोपत ना बानी। बाकि नवके बरिस मे हम बरियार ढंग से कहल चाहब भोजपुरी मे बात करे के, त चलीं बात करे के।  

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी                              


फागुन मे बाबा देवर लागे -----------------


का जमाना आ गयो भाया, जबले अनचहले ई बसंत कलेंडर से बहरियाइल बा ,तबले केहू केकरो बाट नइखे जोहत । कहे के मतलब ई बा कि सभे बारी-बारी से फगुआसल बा । जइसे फागुन केकरो बाट ना जोहे, बेबोलवले अइए जाला आ सभे के अपने ढंग से नचाइयो जाला । हाँ - हाँ , ना - ना भलही करत होखे केहू , रंग – अबीर से कतनों भागत होखे केहू  बाकि फागुन रुखरे सिर चढ़ि जाला । लइकन से लेके सयानन तक आ बुढ़वन से लेके जवानन तक सभे के चाल ढाल , बोल – ठोल  खुमार से भरि के रहि रहि छलकि जाला । प्रकृति त आपन रंगत पकड़ के जीव - जंत ,पशु - पक्षी , मरद –मेहरारू सभे के सिरे फागुन के निसा लगा देले । महुवा के कोंच से लेके आम के बगइचा तक , सेमर आ परास के पेंडो  एकरा से ना बाचेलें । कतों कोइल के कुंहूंक जियरा जरावेले , मन डहकावेले आ परदेसी पिया के इयाद टटका करा देवेले , त कतों  गाँव – गिरांव के मचान , मड़ई आ चउतरा पर बइठल बुढ़ऊ बाबा लोग कब मानेले चिकारी करे से   । ई फागुन हौ बाबू  ! लाज के झीनी चदरियो के ना बकसे । तबे नु , लोक मानस मे ई गीत पंवरत देखाला –

“फागुन मे बाबा देवर लागे , फागुन मे”

            बसंत आ होली  जीवन रस के ताजा राखे भा सूखत रस के बढ़ियावे ला , बरिस मे एक बेर सभे के मिलावे ला अपने रुचि से आइये जाला । भोजपुरियन के मन मिजाज के अपने रस से सराबोर कइए जाला । फेर त गाँव – गाँव , गली – गली मंदिर – मंदिर  महिना भर पहिले से लेके बुढ़वा मंगर तक ले सभ होरियाइल रहेला । देखि न –

रँग फगुनी बसन्ती रँगा  गइले राम ,
धरती – गगन रस बरिसेला ।
·        भोलानाथ गहमरी

            फाग आ होरी के गीत जवन दादरा आ कंहरवा के ठेका पर गावल जाला , कान मे परते दिल के धड़कन बढ़ा देला । फेर त मरजादा के धकियावत , मन मे  भरल गुबार के बहरिया देला । बुढ़वन के जवानी आ जवानन के लइकइ के दिन मन परे लागेला , तबे  बलेसर यादव के कहे के पड़ जाला –
लड़िकन पर बरसे जवनकन पर बरसे
उहो भींजि गइलीं जो अस्सी बरस के ॥
फगुनवां में रंग रसे - रसे बरसै  

            होरी के बात होखे आ कासी के इयाद न आवे , इ कइसे हो सकेला ।  होरी केहू के ना बरिजे , तबे नु भूतभावन भगवान शंकर काशी मे होरी खेलल ना भुलाने –
“भूत प्रेत बटोरी दिगम्बर , खेले मसाने मे होरी 

            बदलत समय के संगे एह घरी सगरों कंक्रीट के झाड़ झंखाड़ उगि आइल बा , फेर कोयल बेचारी कहाँ कुंहुंको, फागुन आ फगुनहट कइसन बाकि इ मन ना नु मानेला , रहि रहिके गुनगुनाए लगेला –

सखी , घरे मोरे अइने नंदलाल ॥
खेलन को होरिया ॥
भींजल अंगिया चुनर मोर उलझल
रंग दीहने मोर गाल ॥ खेलन को होरिया ॥

            मंहगाई के मार झेलत आजु के समाज क तीज –त्योहारन से लगाव गवें गवें बिला रहल बा । समहुत पलिवार त सपना के सम्पत हो गइल बाटे । चिरागो लेके हेरले पर मिलल मुसकिल बा । ओह पर जात पाँत आ धरम के मोलम्मा आग मे घीव लेखा बा । हम बड़ त हम बड़ के चकरी मे नीयत से लेके संस्कार तकले पिसा गइल बा । एक दोसरा के बढ़न्ति देखल अब केकरो सोहात नइखे । जहवाँ  देखि , सब अपने चेहरा चमकावे मे जुटल बा , ओह मे दोसरा पर कनई फेंकलों ना भुला रहल बा । एक दोसरा के हाल समाचार लीहल अब केकरो दिनचर्या मे सामिल नइखे । जरत – बुतात मनई अपना अगिला पीढ़ी खाति कइसन इमारत बना रहल बा , ओकरो नइखे पता । कबों मसाने मे होरी खेले वाला भगवान शिव के आजु के हाल देखी –

“चिता भसम लिए हाथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी ॥
अजुवो हौ प्रेतन को साथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी” ॥

            भोजपुरी आ भोजपुरियन के रीत रेवाज़ के जोगावल आज एगो लमहर काम बाटे । उठास जिनगी मे मिठास घोरल आज एतना जरूरी हो गइल बा जेतना कबों लछिमन जी के संजीवनी पियावल रहल होई ।   एही सोच के संगे भोजपुरी साहित्य सरिता परिवार सभे के मंगलकामना करत कहि रहल बा –
आजु बिरज मे होरी रे रसिया
होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया !

उड़त गुलाल लाल भए बादर
केसर रँग मे बोरी रे रसिया  !
बाजत ढ़ोल मृदंग साँझ डफ
और मंजीरन जोरी रे रसिया !

फेंट गुलाल हाथ पिचुकारी
मारत भरि भरि, झोरी रे रसिया !
इत सों आए कुँवर कन्हइया
उत सों कुँवरि किसोरी रे रसिया !

नन्द गाँव के जूरे सखा सब
बरसाने कि गोरी रे रसिया !
दोउ मिली फाग परसपर खेलें
कहि कहि होरी-होरी रे रसिया !
आजु बिरज मे होरी रे रसिया !!

·        जयशंकर प्रसाद द्विवेदी


Friday, August 10, 2018

सगरों झोले झाल बा का जी?


का जमाना आ गयो भाया , जेने देखी ओने लाइने लाइन लउकत बा। सभे केहू लाइन मे ठाढ़ ह, चुप्पी सधले आ भीतरे भीतर अदहनियाइल। कतना बेबस लउकत बा मनई, तबों दम बन्हले, हुलास आउर जजबा से भरल-पूरल। आगु आवे वाला दिन नीमन दिन होखी एकर बाट जोह रहल बा। कथनी आउर करनी मे उपरियात थोर बहुत नीमन पल के हेरे के भागीरथ परयास करत आम आदमी, तभियो जय जय क रहल बा। वाह रे , जमाना  ! ई का हो रहल बा , काहें हो रहल बा, कुल्हि ओर अटकलन के बजार गरम बा। कबों-कबों त अफवाहन के झोंका आवेला आउर झकझोर के चलि जाला। पहिली बेर गरीब तबका के लोगन के चेहरा पर मुसुकी देखाइल ह आउर  अमीरन के माथा पर शिकन। काहें से कि जवन धन कतों त आलमारिन, तिजोरियन आ बिस्तरबंदन मे अलसायल  पड़ल रहल ह, गवें-गवें गतिमान होवे लगल बा। सुनात बा कि लोगन के मुखौटा बदल रहल ह, अरे उहे करिया धन । सरकारो त गिद्ध नीयन दीठी लगवले खाड़ रहल आउर रहहूँ के चाही।
            गरीबन क तथाकथित नेता लोग बेयाकुल होके कबों बिरही त कबों भैरवी राग मे कुछ अलाप रहल बाटें। का बताईं ! अइसन लोगन से सुनवइया दूर परा रहल बाड़ें। कबों एहमे से कुछ त भ्रष्टाचार आउर  कालाधान के खिलाफ बड़ बड़ मंचन से भोपू पर  चिग्घाड़त रहल लोग। सबसे अलग आउर व्यवस्था परिवर्तक  होखे के दंभ भरत रहल लोग, आज समर्थक बन के बइठ गइल बा लोग। अइसनका लोग कबों विरोध दिवस त कबों भारत बंद करावे मे जुटल रहेला। ई लक्षन त अधकपारिन मे पावल जाला। एही से एह घरी मे चाणक्य के इयाद आवाल सोभाविक बा। इयाद अवते कटहिया मुसुकी ओठ पर तइरय लागेले, इहों त सोभाविक ह। लाइन मे लागल भा लगावल दूनों कमजोरने खाति होला, पहिलहू होत रहे, अजुवो हो रहल बा। धनी मानी लोग कबो लाइन मे ना लागेला। आजु से पहिले केहू देखलों ना होखी। बाकि एह घरी सभे लाइन मे लागल दीख रहल बा। पहिलहू राकस तेज बुद्धि के होत रहने, अजुवों बाड़े। अइसन लोग आपन दिमाग जरूर चलावेला, दिमाग चलल त ओकर असरों लउके लागल, अंजान लोगन के खाता मे, लाइन मे, जन-धन खाता मे। एह बात से ई पता चलल कि हथौड़ा के चोट गरम लोहा पर सही जगहा पर लागल बा। बाकि चोट जेतना बरियार लागे के चाहत रहे, ओतना बरियार ढंग से ना लागल। एकरा पेनी मे सेंध बैंक वाला लोग छुछुनर बनि के खुबे लगवलस। बाकि कहल जाला कि मूस मोटइहें लोढ़ा होइहें, पेंड ना। उहे हाल इहों भइल। कुल्हि बरगद चरमरा के लुढ़क गइल भा लरक गइल बाटे। कुछ महिसासुर लेखा कवनों मायावी रूप अख़्तियार करत होखिहे, करत रहें, महिसोसुर मउवत से कहाँ बाचल, फेर ई लोग कइसे बाची। मने महिसासुर मर्दिनी के अवतार त होखबे करी, उ जरूरी बा। लोगन के ई खूब बुझा रहल बा अब बाचल मोसकिल बा। 
      आशा-निराशा के जंगल राज मे आदमखोर सगरों छिपल बाटें। सेल से जेल तक, महल से अटारी तक, सधारन मनई त सधारने बा, जोरगर लोगन के हाल-बेहाल हो रहल बाटे । कब के कहवाँ संगे बइठ के चाह पीही आ कब ठोक दीही, कहल ना जा सकेला। रामराज के परिकल्पना के रोजे धूर-माटी मे घिसिरावल जाता, तबों ई कहल सुनल जाता –“सब ठीक बा”। कमजोर होखे भा बाहुबली सभे के थरहरी डोल रहल बा। कवने बात के नीमन कहाव आ कवने बात के बाउर, शोध के विषय बन चुकल बा। मोका-मोका आ जुगाड़-जुगाड़ के खेलवाड़ चल रहल बा। सफलता के पैमाना बस जुगाड़ बा। केतनों आफत कटले होखी, जुगाड़ होखे के चाही,राउर मस्त आ जिनगी के गाड़ी जबरजस्त चलत रही। तनिकों केहरो गड़बड़ बुझाय त एगो अदालत मे केस डाल देही, जज वोकिल आ अदालत मिलके एकाध जनम त काटी दिहें। सरग भा नरक मे फैसला सुनावे के जाई?

      लक्ष्मीनरायन के काल्हों जय-जय बोलात रहे, आजों जय-जय बोला रहल बा। राज-साज-समाज कवनों होखे, थोरिको फरक नइखे पड़े के। उनका से बड़ जोगाड़ू कवनों जुग मे केहू नइखे भइल,फेर एह जुग मे कइसे केहू हो जाई। मंतरी से लेके संतरी तक उनका सोझा सभे मुड़ी नवा रहल बा, त मुलाज़िम लोग कवने खेत के मुरई बा लोग। ई त जुग-जुग से चलल आ रहल बा – “खेत खइलस गदहा, मार खाई जोलहा”। कुछ लोग धरती पर खाली नुक्ता-चीनी करे आवेलन, एहू जुग मे कुछ लोग आइल बा।
          
       पीयर पीपर पहिर के चमके वालन के ऊपर कहियों बाँस-बल्ली घहरा सकेले, एकरो खातिकुछ कहल सुनल गइल बा। बेनामी संपत्ति त सुरसा लेखा समाज के रोजे गटक रहल बिया। एकरो दवाई कइल ढेर जरूरी हो गइल बा। तभिए आम मनई अपना खाति छत बदे सोचियों पाई। बाकि ई कुल्हि तभिए संभव हो पाई, जब एकरा के   इंस्पेक्टर राज के नजर न लगो, एकरो पर धियान देवे के जरूरत बा। सरकार के ई कुल्हि बात पर बेगार चुकले धियान देवे के परी। एकरा खाति समुचित परबन्ध करल आ ओकरा पालन करावल जरूरी ह । अब गवें गवें 2019 के गोटी लोग बिछावे मे जुट चुकल बा। एही के झलक संसद के अविश्वास प्रस्ताव के बहस के बेरा लउकल। झूठ-साँच, तिगड़म के संगे अइसनों हरकत होखी जवना से आम मनई के सिर झुक जाई। पक्ष अपने काम के गिनाई आ विपक्ष आरोप के पुलिंदा, मने जनता के फेर से भरमावे के सागरी उपाय दूनों ओरी से होखी। जवने भ्रष्टाचार के खतम करे के बात से शुरू भइल 2014 मे सरकार, केतना सफल भइल भा असफल भइल, एकरो आकलन होखे के चाही। आम लोग खाति आजों भ्रष्टाचार जस के तस बा। एकर बानगी कवनो विभाग मे जा के देखल जा सकेला। भाषाई सवाल आजों अनुत्तरित बा। भोजपुरी भाषा आजों अपने सनमान के राह देख रहल बा। आठवीं अनुसूची भोजपुरी ला आजों सपना बा। महगाई आजो जस के तस बा,किसान आजो आत्महत्या कर रहल बा। शिक्षा एतनी महगा हो गइल बा कि का काहल जाव। धरम-संप्रदाय,जाति के खेला गहिराह हो रहल बा। कहे के मतलब ई बा कि ढेर आफत मुँह बावले ठाढ़ बाड़ी सन। एहनी से पार पावल जरूरी बा,ना त देश आ समाज दूनों क नीमन होखल मोसकिल बा।

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी