का जमाना आ गयो भाया, जबले
अनचहले ई बसंत कलेंडर से बहरियाइल बा ,तबले केहू केकरो बाट
नइखे जोहत । कहे के मतलब ई बा कि सभे बारी-बारी से फगुआसल बा । जइसे फागुन केकरो
बाट ना जोहे, बेबोलवले अइए जाला आ सभे के अपने ढंग से नचाइयो
जाला । हाँ - हाँ , ना - ना भलही करत होखे केहू , रंग – अबीर से कतनों भागत होखे केहू
बाकि फागुन रुखरे सिर चढ़ि जाला । लइकन से लेके सयानन तक आ बुढ़वन से लेके
जवानन तक सभे के चाल ढाल , बोल – ठोल खुमार से भरि के रहि रहि छलकि जाला । प्रकृति त
आपन रंगत पकड़ के जीव - जंत ,पशु - पक्षी , मरद –मेहरारू सभे के सिरे फागुन के निसा लगा देले । महुवा के कोंच से
लेके आम के बगइचा तक , सेमर आ परास के पेंडो एकरा से ना बाचेलें । कतों कोइल के कुंहूंक
जियरा जरावेले , मन डहकावेले आ परदेसी पिया के इयाद टटका करा
देवेले , त कतों गाँव – गिरांव के मचान ,
मड़ई आ चउतरा पर बइठल बुढ़ऊ बाबा लोग कब मानेले चिकारी करे से । ई फागुन हौ बाबू ! लाज के झीनी चदरियो के ना बकसे । तबे नु , लोक मानस मे ई गीत पंवरत देखाला –
“फागुन मे बाबा देवर लागे , फागुन मे”
बसंत आ
होली जीवन रस के ताजा राखे भा सूखत रस के
बढ़ियावे ला , बरिस मे एक बेर सभे के मिलावे ला अपने रुचि
से आइये जाला । भोजपुरियन के मन मिजाज के अपने रस से सराबोर कइए जाला । फेर त गाँव
– गाँव , गली – गली मंदिर – मंदिर महिना भर पहिले से लेके बुढ़वा मंगर तक ले सभ
होरियाइल रहेला । देखि न –
रँग फगुनी बसन्ती रँगा गइले राम ,
धरती – गगन रस बरिसेला ।
·
भोलानाथ गहमरी
फाग आ
होरी के गीत जवन दादरा आ कंहरवा के ठेका पर गावल जाला , कान मे परते दिल के धड़कन बढ़ा देला । फेर त मरजादा के धकियावत , मन मे भरल गुबार के बहरिया देला
। बुढ़वन के जवानी आ जवानन के लइकइ के दिन मन परे लागेला ,
तबे त बलेसर यादव के कहे के पड़
जाला –
लड़िकन पर बरसे जवनकन पर बरसे
उहो भींजि गइलीं जो अस्सी बरस के ॥
फगुनवां में रंग रसे - रसे बरसै ॥
होरी
के बात होखे आ कासी के इयाद न आवे , इ कइसे हो सकेला । होरी केहू के
ना बरिजे , तबे नु भूतभावन भगवान शंकर काशी मे होरी खेलल ना
भुलाने –
“भूत प्रेत बटोरी दिगम्बर , खेले
मसाने मे होरी”
बदलत समय
के संगे एह घरी सगरों कंक्रीट के झाड़ झंखाड़ उगि आइल बा , फेर कोयल बेचारी कहाँ कुंहुंको, फागुन आ
फगुनहट कइसन बाकि इ मन ना नु मानेला , रहि रहिके गुनगुनाए
लगेला –
सखी , घरे मोरे अइने नंदलाल ॥
खेलन को होरिया ॥
भींजल अंगिया चुनर मोर उलझल
रंग दीहने मोर गाल ॥ खेलन को होरिया ॥
मंहगाई के मार झेलत आजु के समाज क तीज –त्योहारन से लगाव गवें गवें बिला रहल बा । समहुत पलिवार त सपना के सम्पत हो गइल बाटे । चिरागो लेके हेरले पर मिलल मुसकिल बा । ओह पर जात पाँत आ धरम के मोलम्मा आग मे घीव लेखा बा । हम बड़ त हम बड़ के चकरी मे नीयत से लेके संस्कार तकले पिसा गइल बा । एक दोसरा के बढ़न्ति देखल अब केकरो सोहात नइखे । जहवाँ देखि , सब अपने चेहरा चमकावे मे जुटल बा , ओह मे दोसरा पर कनई फेंकलों ना भुला रहल बा । एक दोसरा के हाल समाचार लीहल अब केकरो दिनचर्या मे सामिल नइखे । जरत – बुतात मनई अपना अगिला पीढ़ी खाति कइसन इमारत बना रहल बा , ओकरो नइखे पता । कबों मसाने मे होरी खेले वाला भगवान शिव के आजु के हाल देखी –
“चिता भसम लिए हाथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी ॥
अजुवो हौ प्रेतन को साथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी” ॥
भोजपुरी
आ भोजपुरियन के रीत रेवाज़ के जोगावल आज एगो लमहर काम बाटे । उठास जिनगी मे मिठास
घोरल आज एतना जरूरी हो गइल बा जेतना कबों लछिमन जी के संजीवनी पियावल रहल होई
। एही सोच के संगे भोजपुरी साहित्य सरिता
परिवार सभे के मंगलकामना करत कहि रहल बा –
आजु बिरज मे होरी रे रसिया
होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया !
उड़त गुलाल लाल भए बादर
केसर रँग मे बोरी रे रसिया !
बाजत ढ़ोल मृदंग साँझ डफ
और मंजीरन जोरी रे रसिया !
फेंट गुलाल हाथ पिचुकारी
मारत भरि भरि, झोरी रे रसिया !
इत सों आए कुँवर कन्हइया
उत सों कुँवरि किसोरी रे रसिया !
नन्द गाँव के जूरे सखा सब
बरसाने कि गोरी रे रसिया !
दोउ मिली फाग परसपर खेलें
कहि कहि होरी-होरी रे रसिया !
आजु बिरज मे होरी रे रसिया !!
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जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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