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Tuesday, April 16, 2019

फागुन मे बाबा देवर लागे -----------------


का जमाना आ गयो भाया, जबले अनचहले ई बसंत कलेंडर से बहरियाइल बा ,तबले केहू केकरो बाट नइखे जोहत । कहे के मतलब ई बा कि सभे बारी-बारी से फगुआसल बा । जइसे फागुन केकरो बाट ना जोहे, बेबोलवले अइए जाला आ सभे के अपने ढंग से नचाइयो जाला । हाँ - हाँ , ना - ना भलही करत होखे केहू , रंग – अबीर से कतनों भागत होखे केहू  बाकि फागुन रुखरे सिर चढ़ि जाला । लइकन से लेके सयानन तक आ बुढ़वन से लेके जवानन तक सभे के चाल ढाल , बोल – ठोल  खुमार से भरि के रहि रहि छलकि जाला । प्रकृति त आपन रंगत पकड़ के जीव - जंत ,पशु - पक्षी , मरद –मेहरारू सभे के सिरे फागुन के निसा लगा देले । महुवा के कोंच से लेके आम के बगइचा तक , सेमर आ परास के पेंडो  एकरा से ना बाचेलें । कतों कोइल के कुंहूंक जियरा जरावेले , मन डहकावेले आ परदेसी पिया के इयाद टटका करा देवेले , त कतों  गाँव – गिरांव के मचान , मड़ई आ चउतरा पर बइठल बुढ़ऊ बाबा लोग कब मानेले चिकारी करे से   । ई फागुन हौ बाबू  ! लाज के झीनी चदरियो के ना बकसे । तबे नु , लोक मानस मे ई गीत पंवरत देखाला –

“फागुन मे बाबा देवर लागे , फागुन मे”

            बसंत आ होली  जीवन रस के ताजा राखे भा सूखत रस के बढ़ियावे ला , बरिस मे एक बेर सभे के मिलावे ला अपने रुचि से आइये जाला । भोजपुरियन के मन मिजाज के अपने रस से सराबोर कइए जाला । फेर त गाँव – गाँव , गली – गली मंदिर – मंदिर  महिना भर पहिले से लेके बुढ़वा मंगर तक ले सभ होरियाइल रहेला । देखि न –

रँग फगुनी बसन्ती रँगा  गइले राम ,
धरती – गगन रस बरिसेला ।
·        भोलानाथ गहमरी

            फाग आ होरी के गीत जवन दादरा आ कंहरवा के ठेका पर गावल जाला , कान मे परते दिल के धड़कन बढ़ा देला । फेर त मरजादा के धकियावत , मन मे  भरल गुबार के बहरिया देला । बुढ़वन के जवानी आ जवानन के लइकइ के दिन मन परे लागेला , तबे  बलेसर यादव के कहे के पड़ जाला –
लड़िकन पर बरसे जवनकन पर बरसे
उहो भींजि गइलीं जो अस्सी बरस के ॥
फगुनवां में रंग रसे - रसे बरसै  

            होरी के बात होखे आ कासी के इयाद न आवे , इ कइसे हो सकेला ।  होरी केहू के ना बरिजे , तबे नु भूतभावन भगवान शंकर काशी मे होरी खेलल ना भुलाने –
“भूत प्रेत बटोरी दिगम्बर , खेले मसाने मे होरी 

            बदलत समय के संगे एह घरी सगरों कंक्रीट के झाड़ झंखाड़ उगि आइल बा , फेर कोयल बेचारी कहाँ कुंहुंको, फागुन आ फगुनहट कइसन बाकि इ मन ना नु मानेला , रहि रहिके गुनगुनाए लगेला –

सखी , घरे मोरे अइने नंदलाल ॥
खेलन को होरिया ॥
भींजल अंगिया चुनर मोर उलझल
रंग दीहने मोर गाल ॥ खेलन को होरिया ॥

            मंहगाई के मार झेलत आजु के समाज क तीज –त्योहारन से लगाव गवें गवें बिला रहल बा । समहुत पलिवार त सपना के सम्पत हो गइल बाटे । चिरागो लेके हेरले पर मिलल मुसकिल बा । ओह पर जात पाँत आ धरम के मोलम्मा आग मे घीव लेखा बा । हम बड़ त हम बड़ के चकरी मे नीयत से लेके संस्कार तकले पिसा गइल बा । एक दोसरा के बढ़न्ति देखल अब केकरो सोहात नइखे । जहवाँ  देखि , सब अपने चेहरा चमकावे मे जुटल बा , ओह मे दोसरा पर कनई फेंकलों ना भुला रहल बा । एक दोसरा के हाल समाचार लीहल अब केकरो दिनचर्या मे सामिल नइखे । जरत – बुतात मनई अपना अगिला पीढ़ी खाति कइसन इमारत बना रहल बा , ओकरो नइखे पता । कबों मसाने मे होरी खेले वाला भगवान शिव के आजु के हाल देखी –

“चिता भसम लिए हाथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी ॥
अजुवो हौ प्रेतन को साथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी” ॥

            भोजपुरी आ भोजपुरियन के रीत रेवाज़ के जोगावल आज एगो लमहर काम बाटे । उठास जिनगी मे मिठास घोरल आज एतना जरूरी हो गइल बा जेतना कबों लछिमन जी के संजीवनी पियावल रहल होई ।   एही सोच के संगे भोजपुरी साहित्य सरिता परिवार सभे के मंगलकामना करत कहि रहल बा –
आजु बिरज मे होरी रे रसिया
होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया !

उड़त गुलाल लाल भए बादर
केसर रँग मे बोरी रे रसिया  !
बाजत ढ़ोल मृदंग साँझ डफ
और मंजीरन जोरी रे रसिया !

फेंट गुलाल हाथ पिचुकारी
मारत भरि भरि, झोरी रे रसिया !
इत सों आए कुँवर कन्हइया
उत सों कुँवरि किसोरी रे रसिया !

नन्द गाँव के जूरे सखा सब
बरसाने कि गोरी रे रसिया !
दोउ मिली फाग परसपर खेलें
कहि कहि होरी-होरी रे रसिया !
आजु बिरज मे होरी रे रसिया !!

·        जयशंकर प्रसाद द्विवेदी


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