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Tuesday, April 16, 2019

चलीं बात करे के


का जमाना आ गयो भाया,बात करे के परिपाटी फेर से उपरिया रहल बा। बुझाता मौसम आ गइल बा,मोल-भाव करे के बा, त बतकही करहीं के परी। बिना बतकही के बात बनियो ना सकत। ई चिजुइए अइसन ह कि एकरे बने-बिगरे के खेला चलत रहेला। बात बन गइल होखे भा बात बिगर गइल होखे, दुनहूँ हाल मे बात के बात मे बात आइये जाले। हम कहनी ह कि एह घरी मौसमों आ गइल बा,बाकि इहाँ त बेमौसमों के लोग-बाग मन के बात करे मे ना पिछुआलें। जब बात उपरा गइल बा त एकरा के कहि के भुलवाइलो जा सकेला आ मनो परावल जा सकेला। अब ई अलग बात बा कि मन परवलो पर मन मे न आवे भा कवनों नया बात गढ़ा जाय। कई लोग बतावेला कि बात के कई गो सवादो होला, नीमन बात,बाउर बात,खट्टी बात,मीठी बात, करुई बात आउर जाने कतने तरह के बात होलीं स,सभेके उकेरे लागब त बरीस बीत जाई।  

       एगो बरीस त बीतिए रहल बा,त दोसरका बरीस कुंडी खटका रहल बा। अइसना मे एगो के बिदा करे के बा त दोसरका के सुवागत करे के बा। बिदा भा सुवागत दूनों मे कुछ न कुछ बात होखबे करी, होखहूँ के चाही। इहे त एगो तरीका बा जवना मे बन्न रहता खुलि जाला भा खुलल रहता बन्न हो जाला। सब कुछ नीमन-नीमन होखो, एकरा ला बात त करहीं के परी। फेर बात भलहीं कसोतर शुरू मे लागे बाकि बाद मे ओहमें मिठास आइये जाई। जब बात के बात निकलिए गइल बा, त मन के बात के बहाने हिसाबों-किताब के बात उठबे करी,भलहीं उ बतिया मीठ लगे भा तीत। सवाद त चाहे-अनचाहे लेवहीं के परी,भलहीं सवाद लेवे के फेरा में चाहे मुँह मे मिसरी के डली परो भा नीम के करुआइन रस परो, दूनों हाल मे रसपान करहीं के परी। बात चाहे उ प्रधान सेवक के होखो,राउर होखो भा हमार होखो,कुछ लोग त चटकारा लेबs करिहें, कुछ लोग अइसनो मिलिहें जे मीन-मेख निकारे मे अझुराइल होखीहें। अब बात उठल बा त मीन-मेख निकलबे करी,ओकर लेखा-जोखा उतिराइबे करी। मीन-मेख निकाले वाला लोग पहिलही दिन से गिद्ध लेखा आँख गड़वले बा, त कूल्ही बातन के तिक्का-बोटी करबे करी।

       बात के बात में अब ई बतावल जरूरी हो गइल बाटे कि एगो कहाउत ह केहू खाति बैंगन पथ्य आ केहू खाति बैरी एकर धियान राखल जरूरी बाटे। एही से मन के बात के समुझल आ समुझावल जा सकेला। आवे वाले बरीस मे जेकर सुवागत करे खाति सभे लोग अगराइल बाटे,ढेर लोगन के मन के बात करहीं के परी,पोथी-पतरा उलटे-पलटे के परी आ हिसाब-किताब देवे के परी। ई कुल्हि जनता-जनार्दन के कतना सोहाई,पता नइखे। तबो हिसाब-किताब त परोसहीं के परी आ परोसलो जाई, ई केकरा के केतना सोहाई,कहल ना जा सकत बाटे।अब जब हिसाब-किताब के बात शुरू होइए गइल बा त नीमन आ बाउर दूनों सोझा आई। कवनों खाति परसंसा मिली त कवनों खाति टँगरी खींचल जाई। एक-एक बात कई-कई तरह के बाद-बिवाद लेके पसरी,कुछ लोग ठीक मनिहें,त कुछ लोग बाउर कहिहें। बस गोलबंदी शुरू,बाकि जरूरत गोलबंदी के नइखे,जरूरत बा नीमन चीजु के लेके आगु बढ़े के,बीच मे अझुराइल मतलब सब गुड़-गोबर। कइल-धइल कुल्हि बेकार। हर बरीस के अनुभव कुछ न कुछ सीख दे के आगु बढ़ेला,एह बरीस के इहे सीख सही, सिर-माथे लगावल जाई। जवन बिरवा अंखुवाइल,ओहमे पतई निकले शुरू भइल बा, त ओकर बढ़ल आ हरियाइल समय के जरूरत बाटे,ओकरा के बढ़े के चाही,लहलहाये के चाही।ओकरे खाति जवन खाद-पानी चाही, ओकर जुगाड़ लगावे के परी।

       बात शुरू भइल बाटे त बात मे दम होखे के चाही,बात मे दूर तक ले जाये के तागत होखे के चाही,ओकरे रंग-रूप के बारे मे सोचल भा सोच के प्रतिक्रिया दीहल हर जगह जरूरी ना होखस, कुछ लोग इहो मानेला। एकरा खाति अलग-अलग लोगन के अलग-अलग तर्क हो सकेला,बाकि तर्क से सहमत होखल सभके ला जरूरी ना माने के चाही, मानलों ना जा सकेला। अस्तित्व भा अस्मिता के खाति जवन चिंता के बात लोगन के मन मे बाटे,ओकरा के प्रस्तुति ओही से जुड़ल जरूरी मानल जाला, बाकि इहो जरूरी नइखे कि एकरो सभे केहू मानो।कहल त इहाँ तक जाला कि धरोहर भा इतिहास बरियार भइला से सम्प्रेषण के तागत ना आवेले,कुछ लोग कवनों आउर कमी गिना सकेला,बाकि ओकरे अस्मिता के झूठलावल संभव नइखे, कुछ लोग एह सोच के बा, त बा। बाकि ओह लोग के आपन सोच दोसरा पर जबरी थोपल उचित त मानल नाही जा सकत।ओकरा ला कवनों तरह मनभेद के जगह कतों बनल भा बनावल उचित मानल अनुचित कहाई। मतभेद तरीका पर बा,अस्मिता पर ना, सोच पर ना।सोच सार्थक बा तबे नु ओकरा जमीन आ आसमान दूनों मिलल।

       जवना क्षेत्र मे बात के मूल रूप मे राखल भा राखे वालन के नीमन नजर से समाज देखल पसन्न ना करस,उहाँ पहिले एकरा खाति जगह बनावल जरूरी बा। उचित जगह से उचित मान-सम्मान के बात राखल ओकरा स्वरूप से जुड़ के ओकरे सुघरई के संगे आज परोसल जरूरी हो चुकल बा। जवन गलती पहिले भइल बा, जवन परिभाषा पहिले गढ़ाइल बा,ओकरा के तूरल आ ओह घेरा से बाहर झाँकल सगरी ऊर्जा के संगे जरूरी लागत बा। शायद हमनी के कुछ अइसन लोगन के मोका दे रहल बानी जा,जे फेर से कवनों नया सवाल उठा सको?भलहीं उहो लोग अपने समाज से होखस,विभीषण के उपस्थिति के नकारल ना जा सकेला।

       आजु हमनी के जवने बाति के सबसे ढेर कमी महसूस होले ओकर जिकिर एह बाति के बात मे करल जेयादा जरूरी बुझता। भोजपुरी भाषा, जवने के साहित्य,व्याकरण,गद्य,कविता भा गीत के धरोहर के संगे साहित्य के भंडार बरियार बा,तबो भोजपुरिया लोग आपुस मे मिलला पर अपने भाषा मे बतियावल नीमन ना बुझेला,सरम करेला।दिल्ली भा ओकरे नीयरे जब कवनों लमहर कार्यक्रम होला त ओहू मे कवनों ना कवनों बहाना लेके दोसर भाषा के प्रयोग कहीं न कहीं आपने कमी उकेरल बा। अइसने मे नोबल पुरस्कार के उदाहरण के का मायने बा,हमरा समुझ के परे बा, बाकि ई बात ढेर लोग कहेला। भोजपुरी के एगो आउर पहिचान बाटे प्रतिरोध,हमरे बिचार से आजु हमनी के सबसे बेसी जरूरत एकरे बा।ई हमार आपन निजी विचार ह, ई हम केकरो पर थोपत ना बानी। बाकि नवके बरिस मे हम बरियार ढंग से कहल चाहब भोजपुरी मे बात करे के, त चलीं बात करे के।  

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी                              


फागुन मे बाबा देवर लागे -----------------


का जमाना आ गयो भाया, जबले अनचहले ई बसंत कलेंडर से बहरियाइल बा ,तबले केहू केकरो बाट नइखे जोहत । कहे के मतलब ई बा कि सभे बारी-बारी से फगुआसल बा । जइसे फागुन केकरो बाट ना जोहे, बेबोलवले अइए जाला आ सभे के अपने ढंग से नचाइयो जाला । हाँ - हाँ , ना - ना भलही करत होखे केहू , रंग – अबीर से कतनों भागत होखे केहू  बाकि फागुन रुखरे सिर चढ़ि जाला । लइकन से लेके सयानन तक आ बुढ़वन से लेके जवानन तक सभे के चाल ढाल , बोल – ठोल  खुमार से भरि के रहि रहि छलकि जाला । प्रकृति त आपन रंगत पकड़ के जीव - जंत ,पशु - पक्षी , मरद –मेहरारू सभे के सिरे फागुन के निसा लगा देले । महुवा के कोंच से लेके आम के बगइचा तक , सेमर आ परास के पेंडो  एकरा से ना बाचेलें । कतों कोइल के कुंहूंक जियरा जरावेले , मन डहकावेले आ परदेसी पिया के इयाद टटका करा देवेले , त कतों  गाँव – गिरांव के मचान , मड़ई आ चउतरा पर बइठल बुढ़ऊ बाबा लोग कब मानेले चिकारी करे से   । ई फागुन हौ बाबू  ! लाज के झीनी चदरियो के ना बकसे । तबे नु , लोक मानस मे ई गीत पंवरत देखाला –

“फागुन मे बाबा देवर लागे , फागुन मे”

            बसंत आ होली  जीवन रस के ताजा राखे भा सूखत रस के बढ़ियावे ला , बरिस मे एक बेर सभे के मिलावे ला अपने रुचि से आइये जाला । भोजपुरियन के मन मिजाज के अपने रस से सराबोर कइए जाला । फेर त गाँव – गाँव , गली – गली मंदिर – मंदिर  महिना भर पहिले से लेके बुढ़वा मंगर तक ले सभ होरियाइल रहेला । देखि न –

रँग फगुनी बसन्ती रँगा  गइले राम ,
धरती – गगन रस बरिसेला ।
·        भोलानाथ गहमरी

            फाग आ होरी के गीत जवन दादरा आ कंहरवा के ठेका पर गावल जाला , कान मे परते दिल के धड़कन बढ़ा देला । फेर त मरजादा के धकियावत , मन मे  भरल गुबार के बहरिया देला । बुढ़वन के जवानी आ जवानन के लइकइ के दिन मन परे लागेला , तबे  बलेसर यादव के कहे के पड़ जाला –
लड़िकन पर बरसे जवनकन पर बरसे
उहो भींजि गइलीं जो अस्सी बरस के ॥
फगुनवां में रंग रसे - रसे बरसै  

            होरी के बात होखे आ कासी के इयाद न आवे , इ कइसे हो सकेला ।  होरी केहू के ना बरिजे , तबे नु भूतभावन भगवान शंकर काशी मे होरी खेलल ना भुलाने –
“भूत प्रेत बटोरी दिगम्बर , खेले मसाने मे होरी 

            बदलत समय के संगे एह घरी सगरों कंक्रीट के झाड़ झंखाड़ उगि आइल बा , फेर कोयल बेचारी कहाँ कुंहुंको, फागुन आ फगुनहट कइसन बाकि इ मन ना नु मानेला , रहि रहिके गुनगुनाए लगेला –

सखी , घरे मोरे अइने नंदलाल ॥
खेलन को होरिया ॥
भींजल अंगिया चुनर मोर उलझल
रंग दीहने मोर गाल ॥ खेलन को होरिया ॥

            मंहगाई के मार झेलत आजु के समाज क तीज –त्योहारन से लगाव गवें गवें बिला रहल बा । समहुत पलिवार त सपना के सम्पत हो गइल बाटे । चिरागो लेके हेरले पर मिलल मुसकिल बा । ओह पर जात पाँत आ धरम के मोलम्मा आग मे घीव लेखा बा । हम बड़ त हम बड़ के चकरी मे नीयत से लेके संस्कार तकले पिसा गइल बा । एक दोसरा के बढ़न्ति देखल अब केकरो सोहात नइखे । जहवाँ  देखि , सब अपने चेहरा चमकावे मे जुटल बा , ओह मे दोसरा पर कनई फेंकलों ना भुला रहल बा । एक दोसरा के हाल समाचार लीहल अब केकरो दिनचर्या मे सामिल नइखे । जरत – बुतात मनई अपना अगिला पीढ़ी खाति कइसन इमारत बना रहल बा , ओकरो नइखे पता । कबों मसाने मे होरी खेले वाला भगवान शिव के आजु के हाल देखी –

“चिता भसम लिए हाथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी ॥
अजुवो हौ प्रेतन को साथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी” ॥

            भोजपुरी आ भोजपुरियन के रीत रेवाज़ के जोगावल आज एगो लमहर काम बाटे । उठास जिनगी मे मिठास घोरल आज एतना जरूरी हो गइल बा जेतना कबों लछिमन जी के संजीवनी पियावल रहल होई ।   एही सोच के संगे भोजपुरी साहित्य सरिता परिवार सभे के मंगलकामना करत कहि रहल बा –
आजु बिरज मे होरी रे रसिया
होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया !

उड़त गुलाल लाल भए बादर
केसर रँग मे बोरी रे रसिया  !
बाजत ढ़ोल मृदंग साँझ डफ
और मंजीरन जोरी रे रसिया !

फेंट गुलाल हाथ पिचुकारी
मारत भरि भरि, झोरी रे रसिया !
इत सों आए कुँवर कन्हइया
उत सों कुँवरि किसोरी रे रसिया !

नन्द गाँव के जूरे सखा सब
बरसाने कि गोरी रे रसिया !
दोउ मिली फाग परसपर खेलें
कहि कहि होरी-होरी रे रसिया !
आजु बिरज मे होरी रे रसिया !!

·        जयशंकर प्रसाद द्विवेदी


Friday, August 10, 2018

सगरों झोले झाल बा का जी?


का जमाना आ गयो भाया , जेने देखी ओने लाइने लाइन लउकत बा। सभे केहू लाइन मे ठाढ़ ह, चुप्पी सधले आ भीतरे भीतर अदहनियाइल। कतना बेबस लउकत बा मनई, तबों दम बन्हले, हुलास आउर जजबा से भरल-पूरल। आगु आवे वाला दिन नीमन दिन होखी एकर बाट जोह रहल बा। कथनी आउर करनी मे उपरियात थोर बहुत नीमन पल के हेरे के भागीरथ परयास करत आम आदमी, तभियो जय जय क रहल बा। वाह रे , जमाना  ! ई का हो रहल बा , काहें हो रहल बा, कुल्हि ओर अटकलन के बजार गरम बा। कबों-कबों त अफवाहन के झोंका आवेला आउर झकझोर के चलि जाला। पहिली बेर गरीब तबका के लोगन के चेहरा पर मुसुकी देखाइल ह आउर  अमीरन के माथा पर शिकन। काहें से कि जवन धन कतों त आलमारिन, तिजोरियन आ बिस्तरबंदन मे अलसायल  पड़ल रहल ह, गवें-गवें गतिमान होवे लगल बा। सुनात बा कि लोगन के मुखौटा बदल रहल ह, अरे उहे करिया धन । सरकारो त गिद्ध नीयन दीठी लगवले खाड़ रहल आउर रहहूँ के चाही।
            गरीबन क तथाकथित नेता लोग बेयाकुल होके कबों बिरही त कबों भैरवी राग मे कुछ अलाप रहल बाटें। का बताईं ! अइसन लोगन से सुनवइया दूर परा रहल बाड़ें। कबों एहमे से कुछ त भ्रष्टाचार आउर  कालाधान के खिलाफ बड़ बड़ मंचन से भोपू पर  चिग्घाड़त रहल लोग। सबसे अलग आउर व्यवस्था परिवर्तक  होखे के दंभ भरत रहल लोग, आज समर्थक बन के बइठ गइल बा लोग। अइसनका लोग कबों विरोध दिवस त कबों भारत बंद करावे मे जुटल रहेला। ई लक्षन त अधकपारिन मे पावल जाला। एही से एह घरी मे चाणक्य के इयाद आवाल सोभाविक बा। इयाद अवते कटहिया मुसुकी ओठ पर तइरय लागेले, इहों त सोभाविक ह। लाइन मे लागल भा लगावल दूनों कमजोरने खाति होला, पहिलहू होत रहे, अजुवो हो रहल बा। धनी मानी लोग कबो लाइन मे ना लागेला। आजु से पहिले केहू देखलों ना होखी। बाकि एह घरी सभे लाइन मे लागल दीख रहल बा। पहिलहू राकस तेज बुद्धि के होत रहने, अजुवों बाड़े। अइसन लोग आपन दिमाग जरूर चलावेला, दिमाग चलल त ओकर असरों लउके लागल, अंजान लोगन के खाता मे, लाइन मे, जन-धन खाता मे। एह बात से ई पता चलल कि हथौड़ा के चोट गरम लोहा पर सही जगहा पर लागल बा। बाकि चोट जेतना बरियार लागे के चाहत रहे, ओतना बरियार ढंग से ना लागल। एकरा पेनी मे सेंध बैंक वाला लोग छुछुनर बनि के खुबे लगवलस। बाकि कहल जाला कि मूस मोटइहें लोढ़ा होइहें, पेंड ना। उहे हाल इहों भइल। कुल्हि बरगद चरमरा के लुढ़क गइल भा लरक गइल बाटे। कुछ महिसासुर लेखा कवनों मायावी रूप अख़्तियार करत होखिहे, करत रहें, महिसोसुर मउवत से कहाँ बाचल, फेर ई लोग कइसे बाची। मने महिसासुर मर्दिनी के अवतार त होखबे करी, उ जरूरी बा। लोगन के ई खूब बुझा रहल बा अब बाचल मोसकिल बा। 
      आशा-निराशा के जंगल राज मे आदमखोर सगरों छिपल बाटें। सेल से जेल तक, महल से अटारी तक, सधारन मनई त सधारने बा, जोरगर लोगन के हाल-बेहाल हो रहल बाटे । कब के कहवाँ संगे बइठ के चाह पीही आ कब ठोक दीही, कहल ना जा सकेला। रामराज के परिकल्पना के रोजे धूर-माटी मे घिसिरावल जाता, तबों ई कहल सुनल जाता –“सब ठीक बा”। कमजोर होखे भा बाहुबली सभे के थरहरी डोल रहल बा। कवने बात के नीमन कहाव आ कवने बात के बाउर, शोध के विषय बन चुकल बा। मोका-मोका आ जुगाड़-जुगाड़ के खेलवाड़ चल रहल बा। सफलता के पैमाना बस जुगाड़ बा। केतनों आफत कटले होखी, जुगाड़ होखे के चाही,राउर मस्त आ जिनगी के गाड़ी जबरजस्त चलत रही। तनिकों केहरो गड़बड़ बुझाय त एगो अदालत मे केस डाल देही, जज वोकिल आ अदालत मिलके एकाध जनम त काटी दिहें। सरग भा नरक मे फैसला सुनावे के जाई?

      लक्ष्मीनरायन के काल्हों जय-जय बोलात रहे, आजों जय-जय बोला रहल बा। राज-साज-समाज कवनों होखे, थोरिको फरक नइखे पड़े के। उनका से बड़ जोगाड़ू कवनों जुग मे केहू नइखे भइल,फेर एह जुग मे कइसे केहू हो जाई। मंतरी से लेके संतरी तक उनका सोझा सभे मुड़ी नवा रहल बा, त मुलाज़िम लोग कवने खेत के मुरई बा लोग। ई त जुग-जुग से चलल आ रहल बा – “खेत खइलस गदहा, मार खाई जोलहा”। कुछ लोग धरती पर खाली नुक्ता-चीनी करे आवेलन, एहू जुग मे कुछ लोग आइल बा।
          
       पीयर पीपर पहिर के चमके वालन के ऊपर कहियों बाँस-बल्ली घहरा सकेले, एकरो खातिकुछ कहल सुनल गइल बा। बेनामी संपत्ति त सुरसा लेखा समाज के रोजे गटक रहल बिया। एकरो दवाई कइल ढेर जरूरी हो गइल बा। तभिए आम मनई अपना खाति छत बदे सोचियों पाई। बाकि ई कुल्हि तभिए संभव हो पाई, जब एकरा के   इंस्पेक्टर राज के नजर न लगो, एकरो पर धियान देवे के जरूरत बा। सरकार के ई कुल्हि बात पर बेगार चुकले धियान देवे के परी। एकरा खाति समुचित परबन्ध करल आ ओकरा पालन करावल जरूरी ह । अब गवें गवें 2019 के गोटी लोग बिछावे मे जुट चुकल बा। एही के झलक संसद के अविश्वास प्रस्ताव के बहस के बेरा लउकल। झूठ-साँच, तिगड़म के संगे अइसनों हरकत होखी जवना से आम मनई के सिर झुक जाई। पक्ष अपने काम के गिनाई आ विपक्ष आरोप के पुलिंदा, मने जनता के फेर से भरमावे के सागरी उपाय दूनों ओरी से होखी। जवने भ्रष्टाचार के खतम करे के बात से शुरू भइल 2014 मे सरकार, केतना सफल भइल भा असफल भइल, एकरो आकलन होखे के चाही। आम लोग खाति आजों भ्रष्टाचार जस के तस बा। एकर बानगी कवनो विभाग मे जा के देखल जा सकेला। भाषाई सवाल आजों अनुत्तरित बा। भोजपुरी भाषा आजों अपने सनमान के राह देख रहल बा। आठवीं अनुसूची भोजपुरी ला आजों सपना बा। महगाई आजो जस के तस बा,किसान आजो आत्महत्या कर रहल बा। शिक्षा एतनी महगा हो गइल बा कि का काहल जाव। धरम-संप्रदाय,जाति के खेला गहिराह हो रहल बा। कहे के मतलब ई बा कि ढेर आफत मुँह बावले ठाढ़ बाड़ी सन। एहनी से पार पावल जरूरी बा,ना त देश आ समाज दूनों क नीमन होखल मोसकिल बा।

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
       

Thursday, June 7, 2018

अंतरात्मा के आवाज

का जमाना आ गयो भाया, कुरसी के लड़ाई मे साँच के बलि दिया गइल। सत्यमेव जयते लिखलका पत्थरवा लागत बा कवनो बाढ़ मे दहा गइल। तबे नु एकर परिभाषा घरी घरी बदल रहल बा। पहिले दिन कुछ आउर आ दोसरा दिन कुछ आउर। अपना देश मे एकर बरियार सुविधा बा जवन कबों केकरो आवाज के अंतरात्मा के आवाज मे पलट देवेले। बाकि एह आवाज के निकाले खाति ढेर पापड़ बेले के पड़ेला। पापड़ बेल देले भर से कबों काम ना चले, त ओह पर कुछ छिड़के के पड़ेला,घाम देखावे के पड़ेला, आ कबों कबों आँचो देखावे के परि जाला। बाकि अबरी दाल भात मे मुसरचंद आ गइले, एही से अंतरात्मा के आवाज ना निकल पावल, नरेटी मे अंटकि गइल। कब निकली एकर कवनों पता नइखे, भा अंटकले रहि जाई, इहो कहल ना जा सकेला। केरा आ बइर के संगत कब ले चल पाई, ई त समय बताई। बाढ़ मे दहा जाये के डरे कीरा आ नेउर एकही डाढ़ पर लउके लन बाकि असर घटते एक दोसरा के जिनगी का पाछे परि जालें। अबही त हँसी हँसी के मुसकियाए आ सेल्फियाए के समय ह, सभे एकर भरपूर लाभ उठा रहल ह। ढेर लोग त जलसा मना रहल बा। 
जोगाड़ तंत्र के जमाने मे इहो ना बुझाला कि के जीतल भा के हारल। कुछ लोग एहमे जीतियों के हार जाला आ कुछ लोग हारियों के जीत जाला। अइसने मे लंगूर के हाथे हूर पड़िए जाला। कबों कबों ओकरो भाग जाग जाला जेकर “न गाँव मे घर बा आ ना सिवाने खेत”। भलही उ कठपुतरी लेखा ता थाइया ता थाइया पर ठुमका लगावत लगावत समय काट लेत होखे। बेचारी जनता बेच्चारी बनि के तमासा देखत रहि जाले। ओकरे हाथे त उहे आवेला, अरे मालूम नइखे का “बाबाजी का ठुल्लु”। एह बेचारी जनता के अंतरात्मा के आवाजो केकरो ना सुनाला, भा केहू सुनलो ना पसन करेला। एगो मंथरा के चाल से 3 गो राजा लोग दुखी भइल, दू लोग त दुनिया छोड़ गइल, जवने कालखंड मे तीन-तीन मंथरा एकही जगह एकही समय पर जुट जाँय, फेर त तूफान के अंदाजा लगावल जा सकेला। लइकई मे सुनले रहनी सन कि जहवाँ दू गो मेहरारू भा लइकी मुड़ी सटा के बतीसी फार मुसुकी मारत होखें, उहाँ अनहोनी होखे से दइयो ना बचा सकेले, मनई के का औकात। 
पुलुई मट्टी के बनावल ठीहा पर चढ़ि के लाठी भांजल, नोनियाइल भीति के भहराइल कवनो अनहोनी ना कहाला। ई त सभे के पहिलही से मालूम रहेला कि का होखे वाला बा आ का होई। बाकि एह हहकारा से घोड़ा बेंच के सुतल लोगन के नीन खुलि जाये के चाही। सपना मे हमार आधा, हमार आधा के तिगड़म जोड़ले से हर घरी ना जुड़ पावे। खटिया के नीचे उतरे के परेला, चले –फिरे के परेला आ कुछ कामो करे के परेला, जवन लोगन के लउके।ढेर बिसवासो लोगन के शाइनिंग इंडिया के दरसन करा देवेला। दू –चार दिन मे हथोरी मे सरसों जमा के, ओकरा फूलत-फरत देखला के सोच “मुंगेरी लाल के सपना” से बेसी ना कहल जाई। सुने मे आवता कि एक जाने के कवनो तुरुप के ईक्का मिल गइल बाटे। एह घरी ओही के चमकावे मे जुटल बाड़े। कुछ लोग कहता कि सत्ताईस के तीन भाग मे बाटें के खेला होखी। मने सताइस के तीन भाग मे बाँटि के अगिला बेर लड़ाई मे उतरिहें। भगवान भला करे, इनहूँ के अंतरात्मा से कुछ आवाज निकलो। 

जयशंकर प्रसाद द्विवेदी                        

सभे कुछ माफ आ ना त पूरा साफ .................?


का जमाना आ गयो भाया , सबही  के जीभ मे खजुली उपरियाए लागल बा। तनि हई न देखी ! अब चलनियों बउवा रहल बानी सन आ कुछहू बोल – बोल के अतिराइल घूमत बानी सन। सबही कुछ ना कुछ बोले खाति मुँह बवले बा, भलही उनुका खुललके मुँह मे माछी पइठ जास। फेर त खोंखत-खोंखत सांस उपरिये नु जाई । जेकरे अपने मेहरी के सोझे बकार न फूटत होखस, उहो लामा-लामा फेंक रहल बा। अपना के लमहर बोलवाइया बूझ रहल बा, भलही उ केहू आउर के लिखल होखस, उहो चटकारा ले-  ले के आ मुड़ी झार झार के बोल रहल बा। उ लोग राजस्थान के आन्ही मे बालू मे मुड़ी गोत के बड़का  बकता के पोछिंडा लेखा ओकर मुक़ाबला करे के दंभ बान्ह रहल बाड़ें ।ओहनी के मालूम बा कि इहवाँ कुछहू बोलला के कवनों मतलब नइखे, कतों कुछ निकलतों होखे त दोसरा पर बला टाल के आपन छुट्टी बूझ लेला लोग। ओइसहू इहवाँ बस बोलला से मतलब बा, करे के त कुछ हइए नइखे । फेर कुछों बोलत रहीं महाराज ! का फरक पड़े वाला बा। 70 बरिस मे जहवाँ के सोच ना बदलल होखे ,उहवाँ मनई बदल जाई, ई संभव नइखे। इहे त लोकतन्त्र के सुघरई ह, कुछहू बोल के आ फेर माफी माँग ल, हो गइल काम । अरे भइया ! ई लोकतन्त्र ह, इहवाँ सभे कुछ माफ आ ना त पूरा साफ। आइसन लोग दोसरा पर अछरंग लगा के फूट लेवेला ।

            हमरा त आज ले ई बुझाइल कि जे गरीबन के नांव के नेतागिरी करत बा, उ भला हेतना अमीर कइसे हो गइल ? गरीबवा बेचारा आउर गरीब हो गइलन सन। फलनवाँ जात पिछड़ल बा कहि कहि के अपने धनकुबेर बनल लोग चारा,कोइला कुछहू ना छोड़ेला। बाकि उनका जात के लोग सोचलो ना चाहेला , न देखबे करेला ,समझला के त दूर के बात बा । केहू हमरा आ के इ समझावो कि मड़ई से महल के जतरा 10 बरिस मे , कइसे होखेला । बेगर कवनों नोकरी भा धंधा के करोड़पति बने के लूर का हवे भाई, केहू बताओ। बुद्धू बकसवा पर आके जे जे कुछहू आ केनियों फेंकत रहेला, ओहू लोग से पूछ रहल बानी। फेर एह बड़ –बड़ स्कूल आ विश्व विद्यालयन के जरूरत का बा ?जब कुल बुद्धि आ दिमाग अनपढ़ के लग्गे होला,त फेर पढ़े लिखे क टंटा के जरूरत का ह ? मनराखन पांडे बनि के देस आ समाज तूरल जा सकेला, जोरल ना। साँच के सोझा लियावे के बा, आपन भविस मति देखीं, बस सोझा काम करे मे मन लगाईं । बेताज बादशाह बने से कोई ना रोक सके। जबरी बनब त लोग बहरिया देही। आज लोगन के राउर साथ पसंद बा कि ना , झूठिया देखावत रहीं आ सोची कि लोग उहे देख रहल बा , त ई सोझ भरम ह । जनता के मरम बूझी । दिनही मे सपनाए वाला इतिहास ना लिखे ।  जागीं ,कुछ ठोस करी फेर ध्रुव तारा बने के सोची । आलू के फैक्टरी लगा के केहू ध्रुवतारा ना बन पावेला ।  
            आजु के समय मे जेकरे जर के पते नइखे, उहो बरगदे बनल चाहता। कइसे बनबा भाई ? पहिले बरगद वाला गुन त अपना मे हेर लs, कोने अँतरे जरि मनी होखे त ।मुंगेरी लाल लेखा सपनाइले से का होई । एक दोसरा के चरित्र पर कनई बीगले से स्तर मे कवनों सितार न जड़ा जाई । आजु के पहिले हर चीजन से खेलवाड़ भइल बा, जवन आज सभे के दिख रहल बा । राज करे खाति सझुराइल बतियों जान बूझ के अझुरावल गइल बा । झूठ के थुन्ही आ बड़ेर पर राखल पलानी के दिन अंधड़ के रोक पाई, ज़ोर के झझोर लगते उधिया जाई ।  

      गज़ब बा भाई, मलिकार के खुस करेला उनके अवतारी बना रहल बा लोग । खाली बोलिए के ना चुपाता लोग, ओकर बड़का-बड़का बैनर टाँगते घूम रहल बा लोग । नयकी बहुरिया के चाम –चूम त होखबे करेला । होइयो रहल बा, उनुके पाँव पड़ला के गुणगान सगरों सुनाता । भगवान भला करिहें, अइसन लोगन के जेकरे आँखि पर हरियरकी मोटकी पट्टी बन्हाइल बा । चमचा – बेलचा लोग के ई जनमजात गुन होखेला अरधना, पूरा मन लगा के कर रहल बा लो । एह देश आ इहाँ के रहवइयन के का काहल जाव, कतहूँ मुड़ी पटके लागेला, अइसन लो के केहुवो समझा ना सकत । मंतरी का संतरी का, मौलवी का फकीर का, ओझा-गुनिया का । बाबा लोग के त बाते निराली ह, आज कल सबज़ी रोप – बो के प्रवचन दे रहल बा लोग ।

      एगो आउर बाबा बाड़ें जे सफाई अभियान चला रहल बाड़ें। कुछ लोग – बाग, अरे दोसरका बाबा के गोल वाला लोग कह रहल बा कि हमनी के एनही ठीक बानी सन। बताईं भला, कुकुरो अपना पोंछी से झार-झूर के बइठे लन स, बाकि ई लोग के त लोटे के आदत नु बा । कतहूँ लोट जाई लोग। कुछहु खाति लोट जाई लोग । सगरों बस पिचिर–पिचिर करत रही भा इंजन लेखा धुआं छोड़त रही। ई कूल्हि देख के एगो नैतिकता नाँव के चिरई बेचारी जवार छोड़ के केने चल गइल, केकरो पता नइखे। गरमी होखे भा जाड़ा चिरई चुरमुन के पीये खाति पानी त चहबे करेला नु, जब पानी पीये जोग ना होखे त, चिरई-चुरमुन बेचारा कहाँ जइहन ?

      एह देश के राजधानी त राजधानी, ओकरे अगल-बगल देख लेही भा कवनो मे गलती से नहा लेही भा एक चुरुवा पानी पी लेही, फेर AIMS भा APOLO मे शरण मिलल पक्का बा। कतों हम पढ़ले रहनी कि बादशाह अकबर रोज एक लोटा यमुना जी के पानी पियत रहे, आज होखते त बुझात। पहिले त एकही गो राजा रहत रहलें, त पानी पीये जोग रहे आ अब 565 गो रहत बाड़ें। कूल्हि मिलन के रोज एक – एक लोटा यमुना जी के पानी पियवले के दरकार बा। जमुना जी त जमुना जी दिल्लियो साफ न हो जाय तब कहेम। सफाई के काम मे जेतना लोग लागे सबके एक लोटा रोज पानी पियाई, फेर देखी जेतना करिया उज्जर नदी सफाई योजना के बा, सब बहरियाए लागी।               
                    
      अब तनि हरिनंदी यानि हिंडन के बात कर लीहल जाव, इ कुल देख-दाख के आउर सरकार भा अधिकारी लोगन के करतूत से हिंडन (हरनंदी) नदी नाला बन चुकल बा। जब कवनो नदी पूरा शहर के मलबा अपने पेट मे बरियाई लीही त इहे होखी। हिंडन नदी कबों गाजियाबाद शहर के मोक्षदायिनी रहल बाड़ी, ओहू मे एगो ऐतिहासिक नदी, तबों हेतना अनदेखी। जनम, मिरतुक से लेके पूजा-फरा तक ले जेकरे घाट आउर पानी के परयोग होत रहल होखे, ओकर पानी आज हाथो धोवे लायक नइखे बाचल।एह घरी विसेश्रवा ऋषि रहतें त का करतें।
            लगले हाथ आजु के देश हो रहल चुनाव आउर ओकरे नतीजन पर नजर डालत चले के, इहवों जेकर लाठी ओही भैंस बिया। दोसर केहू त बस टुकुर टिकुर ताकते रह जात बा । गोवा, मेघालय, त्रिपुरा आ अब कर्नाटक, फिरो देखी सभे नाटक। आपन आपन तरक आपन आपन तरकस। कवने नैतिकता के बात जोहत ह एह देश के लोग आ केकरा से। जइसन नागनाथ, ओइसे साँपनाथ, आउर कुल्हि नाथन के बातों बेमानी बा। हाँका लोग लोकतन्त्र के भैंस मातिन, देत रहा लोग दुहाई ओही लोकतन्त्र के आ राजभवन के विवेक के। राज भवन मे जवन विवेक बसल बा, उहो तहरे सभे के बसावल बा।
      एही महिनवा मे मने मई महिना (5 मई 1818) एगो दार्शनिक आउर समाजवाद के सूत्र देवे वाले कार्लमार्क्स के जनम दिन आनि कि 200वी जयंती सगरी दुनिया मे मनल। उनुका दर्शन मे से एह घरी सड़ांध आ रहल बा, काहें कि उ दर्शन फेल हो चुकल बा। जब एह दर्शन पर आधारित सरकार दुनियाँ के एगो कोना मे आइल रहे जवना के बोल्शेविक क्रान्ति के नाम से जानल जाला, उहवाँ अधिनायकवाद के बोलबाला हो गइल रहे आ सरकार बिरोधीयन के खूब हत्या भइल रहे। शायद हिटलर लेखा लेलिन, स्टालिन आ माओ मानवता के लमहर दुसमन बन गइल लोग । एह मे सर्वहारा वर्ग के बेसी दमन भइल । बाकि भारत मे अजुवो एह विचारधारा के कुछ लोग ढो रहल बा, ई लोग के भारत के अखंडता फूटलो आँख ना सोहाला । ओकरा चक्कर मे एह विचार धारा वाला लोग देश द्रोह के स्तर तक पहुँच चुकल बा । जेकर बानगी इहाँ के लोग कई बेर देश चुकल बा । जेएनयू के घटना ओकर ताजा उदाहरण बा ।
      चलत चलत अपने देश के उच्च शिक्षा पर एगो सरसरी नजर डालल जरूरी बुझाता। अइसने एगो उच्च शिक्षा संस्थान के जिकिर तनिका पहिले आइल ह।अइसन कुल्हि संस्थान आन्हर कुइयाँ लेखा बुझालें भा चक्रव्यूह लेखा बा। जवना मे जाये के रहता त बा बाकि निकले के रहता ....? इहवाँ के स्थिति थोड़ ढेर “सभे कुछ माफ आ ना त जिनगी पूरा साफ” के ढर्रे पर चलत रहेले भा कबों कबों ठहरल बुझाले। कबों कबों त इहों बुझाला कि डिगरी बाटें वाला कारख़ाना खुलल बा जवन केंद्र आ राज्य सरकारन के संरक्षण मे चल रहल बा।                          
           
·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी