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Sunday, July 21, 2019
Tuesday, April 16, 2019
चलीं बात करे के
का जमाना आ गयो भाया,बात करे के परिपाटी फेर से उपरिया रहल बा। बुझाता मौसम आ गइल बा,मोल-भाव करे के बा, त बतकही करहीं के
परी। बिना बतकही के बात बनियो ना सकत। ई चिजुइए अइसन ह कि एकरे बने-बिगरे के खेला
चलत रहेला। बात बन गइल होखे भा बात बिगर गइल होखे, दुनहूँ हाल मे बात के बात मे बात आइये जाले। हम
कहनी ह कि एह घरी मौसमों आ गइल बा,बाकि इहाँ त बेमौसमों के लोग-बाग मन के बात करे
मे ना पिछुआलें। जब बात उपरा गइल बा त एकरा के कहि के भुलवाइलो जा सकेला आ मनो परावल जा सकेला। अब ई अलग बात बा कि मन
परवलो पर मन
मे न आवे भा कवनों नया बात गढ़ा जाय। कई लोग बतावेला
कि बात के कई गो सवादो होला, नीमन बात,बाउर बात,खट्टी बात,मीठी बात, करुई बात आउर जाने कतने तरह के बात होलीं स,सभेके उकेरे लागब त
बरीस बीत जाई।
एगो बरीस त बीतिए रहल बा,त दोसरका बरीस कुंडी
खटका रहल बा। अइसना मे एगो के बिदाई करे के बा त दोसरका
के सुवागत करे के बा। बिदाई भा सुवागत दूनों मे
कुछ न कुछ बात होखबे करी, होखहूँ के चाही। इहे त एगो तरीका बा जवना मे बन्न रहता खुलि जाला भा
खुलल रहता बन्न हो जाला। सब कुछ नीमन-नीमन होखो, एकरा ला बात त करहीं के परी। फेर बात भलहीं कसोतर शुरू मे लागे बाकि बाद मे ओहमें मिठास आइये जाई। जब बात के बात निकलिए गइल बा, त मन के बात के बहाने
हिसाबों-किताब के बात उठबे करी,भलहीं उ बतिया मीठ लगे भा तीत। सवाद त
चाहे-अनचाहे लेवहीं के परी,भलहीं सवाद लेवे के फेरा में चाहे मुँह मे मिसरी के डली परो भा नीम के करुआइन रस परो, दूनों हाल मे रसपान करहीं के परी। बात चाहे उ प्रधान सेवक के होखो,राउर होखो भा हमार
होखो,कुछ लोग त चटकारा लेबs करिहें, कुछ लोग अइसनो मिलिहें जे मीन-मेख निकारे मे अझुराइल होखीहें। अब बात
उठल बा त मीन-मेख निकलबे करी,ओकर लेखा-जोखा उतिराइबे करी। मीन-मेख निकाले वाला लोग पहिलही दिन से
गिद्ध लेखा आँख गड़वले बा, त कूल्ही बातन के तिक्का-बोटी करबे करी।
बात के बात में अब ई
बतावल जरूरी हो गइल बाटे कि एगो कहाउत ह ‘केहू खाति बैंगन
पथ्य आ केहू खाति बैरी’ एकर धियान राखल जरूरी बाटे। एही से मन के बात के समुझल आ समुझावल जा
सकेला। आवे वाले बरीस मे जेकर सुवागत करे खाति सभे लोग अगराइल बाटे,ढेर लोगन के मन के
बात करहीं के परी,पोथी-पतरा उलटे-पलटे के परी आ हिसाब-किताब देवे के परी। ई कुल्हि
जनता-जनार्दन के कतना सोहाई,पता नइखे। तबो हिसाब-किताब त परोसहीं के परी आ परोसलो जाई, ई केकरा के केतना सोहाई,कहल ना जा सकत बाटे।अब जब हिसाब-किताब
के बात शुरू होइए गइल बा त नीमन आ बाउर दूनों सोझा आई। कवनों खाति परसंसा मिली त
कवनों खाति टँगरी खींचल जाई। एक-एक बात कई-कई तरह के बाद-बिवाद लेके पसरी,कुछ लोग
ठीक मनिहें,त कुछ लोग बाउर कहिहें। बस गोलबंदी शुरू,बाकि जरूरत गोलबंदी के नइखे,जरूरत बा नीमन चीजु के
लेके आगु बढ़े के,बीच मे अझुराइल मतलब सब गुड़-गोबर। कइल-धइल
कुल्हि बेकार। हर बरीस के अनुभव कुछ न कुछ सीख दे के आगु बढ़ेला,एह बरीस के इहे सीख सही, सिर-माथे लगावल जाई। जवन
बिरवा अंखुवाइल,ओहमे पतई निकले शुरू भइल बा, त ओकर बढ़ल आ हरियाइल समय के जरूरत बाटे,ओकरा के बढ़े
के चाही,लहलहाये के चाही।ओकरे खाति जवन खाद-पानी चाही, ओकर जुगाड़ लगावे के परी।
बात शुरू भइल बाटे त बात मे दम होखे के चाही,बात मे दूर
तक ले जाये के तागत होखे के चाही,ओकरे रंग-रूप के बारे मे
सोचल भा सोच के प्रतिक्रिया दीहल हर जगह जरूरी ना होखस, कुछ
लोग इहो मानेला। एकरा खाति अलग-अलग लोगन के अलग-अलग तर्क हो सकेला,बाकि तर्क से सहमत होखल सभके ला जरूरी ना माने के चाही, मानलों ना जा सकेला। अस्तित्व भा अस्मिता के खाति जवन चिंता के बात लोगन
के मन मे बाटे,ओकरा के प्रस्तुति ओही से जुड़ल जरूरी मानल
जाला, बाकि इहो जरूरी नइखे कि एकरो सभे केहू मानो।कहल त इहाँ
तक जाला कि धरोहर भा इतिहास बरियार भइला से सम्प्रेषण के तागत ना आवेले,कुछ लोग कवनों आउर कमी गिना सकेला,बाकि ओकरे अस्मिता
के झूठलावल संभव नइखे, कुछ लोग एह सोच के बा, त बा। बाकि ओह लोग के आपन सोच दोसरा पर जबरी थोपल उचित त मानल नाही जा
सकत।ओकरा ला कवनों तरह मनभेद के जगह कतों बनल भा बनावल उचित मानल अनुचित कहाई।
मतभेद तरीका पर बा,अस्मिता पर ना, सोच
पर ना।सोच सार्थक बा तबे नु ओकरा जमीन आ आसमान दूनों मिलल।
जवना क्षेत्र मे बात के मूल रूप मे राखल भा राखे वालन के नीमन
नजर से समाज देखल पसन्न ना करस,उहाँ पहिले एकरा खाति जगह बनावल जरूरी बा। उचित
जगह से उचित मान-सम्मान के बात राखल ओकरा स्वरूप से जुड़ के ओकरे सुघरई के संगे आज
परोसल जरूरी हो चुकल बा। जवन गलती पहिले भइल बा, जवन परिभाषा
पहिले गढ़ाइल बा,ओकरा के तूरल आ ओह घेरा से बाहर झाँकल सगरी
ऊर्जा के संगे जरूरी लागत बा। शायद हमनी के कुछ अइसन लोगन के मोका दे रहल बानी जा,जे फेर से कवनों नया सवाल उठा सको?भलहीं उहो लोग
अपने समाज से होखस,विभीषण के उपस्थिति के नकारल ना जा सकेला।
आजु हमनी के जवने बाति के सबसे ढेर कमी महसूस होले ओकर जिकिर एह बाति के
बात मे करल जेयादा जरूरी बुझता। भोजपुरी भाषा, जवने के
साहित्य,व्याकरण,गद्य,कविता भा गीत के धरोहर के संगे साहित्य के भंडार बरियार बा,तबो भोजपुरिया लोग आपुस मे मिलला पर अपने भाषा मे बतियावल नीमन ना बुझेला,सरम करेला।दिल्ली भा ओकरे नीयरे जब कवनों लमहर कार्यक्रम होला त ओहू मे कवनों
ना कवनों बहाना लेके दोसर भाषा के प्रयोग कहीं न कहीं आपने कमी उकेरल बा। अइसने मे
नोबल पुरस्कार के उदाहरण के का मायने बा,हमरा समुझ के परे बा, बाकि ई बात ढेर लोग कहेला। भोजपुरी के एगो आउर पहिचान बाटे प्रतिरोध,हमरे बिचार से आजु हमनी के सबसे बेसी जरूरत एकरे बा।ई हमार आपन निजी विचार
ह, ई हम केकरो पर थोपत ना बानी। बाकि नवके बरिस मे हम बरियार
ढंग से कहल चाहब ‘भोजपुरी मे बात करे के’, त चलीं बात करे के।
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जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
फागुन मे बाबा देवर लागे -----------------
का जमाना आ गयो भाया, जबले
अनचहले ई बसंत कलेंडर से बहरियाइल बा ,तबले केहू केकरो बाट
नइखे जोहत । कहे के मतलब ई बा कि सभे बारी-बारी से फगुआसल बा । जइसे फागुन केकरो
बाट ना जोहे, बेबोलवले अइए जाला आ सभे के अपने ढंग से नचाइयो
जाला । हाँ - हाँ , ना - ना भलही करत होखे केहू , रंग – अबीर से कतनों भागत होखे केहू
बाकि फागुन रुखरे सिर चढ़ि जाला । लइकन से लेके सयानन तक आ बुढ़वन से लेके
जवानन तक सभे के चाल ढाल , बोल – ठोल खुमार से भरि के रहि रहि छलकि जाला । प्रकृति त
आपन रंगत पकड़ के जीव - जंत ,पशु - पक्षी , मरद –मेहरारू सभे के सिरे फागुन के निसा लगा देले । महुवा के कोंच से
लेके आम के बगइचा तक , सेमर आ परास के पेंडो एकरा से ना बाचेलें । कतों कोइल के कुंहूंक
जियरा जरावेले , मन डहकावेले आ परदेसी पिया के इयाद टटका करा
देवेले , त कतों गाँव – गिरांव के मचान ,
मड़ई आ चउतरा पर बइठल बुढ़ऊ बाबा लोग कब मानेले चिकारी करे से । ई फागुन हौ बाबू ! लाज के झीनी चदरियो के ना बकसे । तबे नु , लोक मानस मे ई गीत पंवरत देखाला –
“फागुन मे बाबा देवर लागे , फागुन मे”
बसंत आ
होली जीवन रस के ताजा राखे भा सूखत रस के
बढ़ियावे ला , बरिस मे एक बेर सभे के मिलावे ला अपने रुचि
से आइये जाला । भोजपुरियन के मन मिजाज के अपने रस से सराबोर कइए जाला । फेर त गाँव
– गाँव , गली – गली मंदिर – मंदिर महिना भर पहिले से लेके बुढ़वा मंगर तक ले सभ
होरियाइल रहेला । देखि न –
रँग फगुनी बसन्ती रँगा गइले राम ,
धरती – गगन रस बरिसेला ।
·
भोलानाथ गहमरी
फाग आ
होरी के गीत जवन दादरा आ कंहरवा के ठेका पर गावल जाला , कान मे परते दिल के धड़कन बढ़ा देला । फेर त मरजादा के धकियावत , मन मे भरल गुबार के बहरिया देला
। बुढ़वन के जवानी आ जवानन के लइकइ के दिन मन परे लागेला ,
तबे त बलेसर यादव के कहे के पड़
जाला –
लड़िकन पर बरसे जवनकन पर बरसे
उहो भींजि गइलीं जो अस्सी बरस के ॥
फगुनवां में रंग रसे - रसे बरसै ॥
होरी
के बात होखे आ कासी के इयाद न आवे , इ कइसे हो सकेला । होरी केहू के
ना बरिजे , तबे नु भूतभावन भगवान शंकर काशी मे होरी खेलल ना
भुलाने –
“भूत प्रेत बटोरी दिगम्बर , खेले
मसाने मे होरी”
बदलत समय
के संगे एह घरी सगरों कंक्रीट के झाड़ झंखाड़ उगि आइल बा , फेर कोयल बेचारी कहाँ कुंहुंको, फागुन आ
फगुनहट कइसन बाकि इ मन ना नु मानेला , रहि रहिके गुनगुनाए
लगेला –
सखी , घरे मोरे अइने नंदलाल ॥
खेलन को होरिया ॥
भींजल अंगिया चुनर मोर उलझल
रंग दीहने मोर गाल ॥ खेलन को होरिया ॥
मंहगाई के मार झेलत आजु के समाज क तीज –त्योहारन से लगाव गवें गवें बिला रहल बा । समहुत पलिवार त सपना के सम्पत हो गइल बाटे । चिरागो लेके हेरले पर मिलल मुसकिल बा । ओह पर जात पाँत आ धरम के मोलम्मा आग मे घीव लेखा बा । हम बड़ त हम बड़ के चकरी मे नीयत से लेके संस्कार तकले पिसा गइल बा । एक दोसरा के बढ़न्ति देखल अब केकरो सोहात नइखे । जहवाँ देखि , सब अपने चेहरा चमकावे मे जुटल बा , ओह मे दोसरा पर कनई फेंकलों ना भुला रहल बा । एक दोसरा के हाल समाचार लीहल अब केकरो दिनचर्या मे सामिल नइखे । जरत – बुतात मनई अपना अगिला पीढ़ी खाति कइसन इमारत बना रहल बा , ओकरो नइखे पता । कबों मसाने मे होरी खेले वाला भगवान शिव के आजु के हाल देखी –
“चिता भसम लिए हाथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी ॥
अजुवो हौ प्रेतन को साथ
शिवा नहीं खेल रहे होरी” ॥
भोजपुरी
आ भोजपुरियन के रीत रेवाज़ के जोगावल आज एगो लमहर काम बाटे । उठास जिनगी मे मिठास
घोरल आज एतना जरूरी हो गइल बा जेतना कबों लछिमन जी के संजीवनी पियावल रहल होई
। एही सोच के संगे भोजपुरी साहित्य सरिता
परिवार सभे के मंगलकामना करत कहि रहल बा –
आजु बिरज मे होरी रे रसिया
होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया !
उड़त गुलाल लाल भए बादर
केसर रँग मे बोरी रे रसिया !
बाजत ढ़ोल मृदंग साँझ डफ
और मंजीरन जोरी रे रसिया !
फेंट गुलाल हाथ पिचुकारी
मारत भरि भरि, झोरी रे रसिया !
इत सों आए कुँवर कन्हइया
उत सों कुँवरि किसोरी रे रसिया !
नन्द गाँव के जूरे सखा सब
बरसाने कि गोरी रे रसिया !
दोउ मिली फाग परसपर खेलें
कहि कहि होरी-होरी रे रसिया !
आजु बिरज मे होरी रे रसिया !!
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जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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