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Friday, August 10, 2018

सगरों झोले झाल बा का जी?


का जमाना आ गयो भाया , जेने देखी ओने लाइने लाइन लउकत बा। सभे केहू लाइन मे ठाढ़ ह, चुप्पी सधले आ भीतरे भीतर अदहनियाइल। कतना बेबस लउकत बा मनई, तबों दम बन्हले, हुलास आउर जजबा से भरल-पूरल। आगु आवे वाला दिन नीमन दिन होखी एकर बाट जोह रहल बा। कथनी आउर करनी मे उपरियात थोर बहुत नीमन पल के हेरे के भागीरथ परयास करत आम आदमी, तभियो जय जय क रहल बा। वाह रे , जमाना  ! ई का हो रहल बा , काहें हो रहल बा, कुल्हि ओर अटकलन के बजार गरम बा। कबों-कबों त अफवाहन के झोंका आवेला आउर झकझोर के चलि जाला। पहिली बेर गरीब तबका के लोगन के चेहरा पर मुसुकी देखाइल ह आउर  अमीरन के माथा पर शिकन। काहें से कि जवन धन कतों त आलमारिन, तिजोरियन आ बिस्तरबंदन मे अलसायल  पड़ल रहल ह, गवें-गवें गतिमान होवे लगल बा। सुनात बा कि लोगन के मुखौटा बदल रहल ह, अरे उहे करिया धन । सरकारो त गिद्ध नीयन दीठी लगवले खाड़ रहल आउर रहहूँ के चाही।
            गरीबन क तथाकथित नेता लोग बेयाकुल होके कबों बिरही त कबों भैरवी राग मे कुछ अलाप रहल बाटें। का बताईं ! अइसन लोगन से सुनवइया दूर परा रहल बाड़ें। कबों एहमे से कुछ त भ्रष्टाचार आउर  कालाधान के खिलाफ बड़ बड़ मंचन से भोपू पर  चिग्घाड़त रहल लोग। सबसे अलग आउर व्यवस्था परिवर्तक  होखे के दंभ भरत रहल लोग, आज समर्थक बन के बइठ गइल बा लोग। अइसनका लोग कबों विरोध दिवस त कबों भारत बंद करावे मे जुटल रहेला। ई लक्षन त अधकपारिन मे पावल जाला। एही से एह घरी मे चाणक्य के इयाद आवाल सोभाविक बा। इयाद अवते कटहिया मुसुकी ओठ पर तइरय लागेले, इहों त सोभाविक ह। लाइन मे लागल भा लगावल दूनों कमजोरने खाति होला, पहिलहू होत रहे, अजुवो हो रहल बा। धनी मानी लोग कबो लाइन मे ना लागेला। आजु से पहिले केहू देखलों ना होखी। बाकि एह घरी सभे लाइन मे लागल दीख रहल बा। पहिलहू राकस तेज बुद्धि के होत रहने, अजुवों बाड़े। अइसन लोग आपन दिमाग जरूर चलावेला, दिमाग चलल त ओकर असरों लउके लागल, अंजान लोगन के खाता मे, लाइन मे, जन-धन खाता मे। एह बात से ई पता चलल कि हथौड़ा के चोट गरम लोहा पर सही जगहा पर लागल बा। बाकि चोट जेतना बरियार लागे के चाहत रहे, ओतना बरियार ढंग से ना लागल। एकरा पेनी मे सेंध बैंक वाला लोग छुछुनर बनि के खुबे लगवलस। बाकि कहल जाला कि मूस मोटइहें लोढ़ा होइहें, पेंड ना। उहे हाल इहों भइल। कुल्हि बरगद चरमरा के लुढ़क गइल भा लरक गइल बाटे। कुछ महिसासुर लेखा कवनों मायावी रूप अख़्तियार करत होखिहे, करत रहें, महिसोसुर मउवत से कहाँ बाचल, फेर ई लोग कइसे बाची। मने महिसासुर मर्दिनी के अवतार त होखबे करी, उ जरूरी बा। लोगन के ई खूब बुझा रहल बा अब बाचल मोसकिल बा। 
      आशा-निराशा के जंगल राज मे आदमखोर सगरों छिपल बाटें। सेल से जेल तक, महल से अटारी तक, सधारन मनई त सधारने बा, जोरगर लोगन के हाल-बेहाल हो रहल बाटे । कब के कहवाँ संगे बइठ के चाह पीही आ कब ठोक दीही, कहल ना जा सकेला। रामराज के परिकल्पना के रोजे धूर-माटी मे घिसिरावल जाता, तबों ई कहल सुनल जाता –“सब ठीक बा”। कमजोर होखे भा बाहुबली सभे के थरहरी डोल रहल बा। कवने बात के नीमन कहाव आ कवने बात के बाउर, शोध के विषय बन चुकल बा। मोका-मोका आ जुगाड़-जुगाड़ के खेलवाड़ चल रहल बा। सफलता के पैमाना बस जुगाड़ बा। केतनों आफत कटले होखी, जुगाड़ होखे के चाही,राउर मस्त आ जिनगी के गाड़ी जबरजस्त चलत रही। तनिकों केहरो गड़बड़ बुझाय त एगो अदालत मे केस डाल देही, जज वोकिल आ अदालत मिलके एकाध जनम त काटी दिहें। सरग भा नरक मे फैसला सुनावे के जाई?

      लक्ष्मीनरायन के काल्हों जय-जय बोलात रहे, आजों जय-जय बोला रहल बा। राज-साज-समाज कवनों होखे, थोरिको फरक नइखे पड़े के। उनका से बड़ जोगाड़ू कवनों जुग मे केहू नइखे भइल,फेर एह जुग मे कइसे केहू हो जाई। मंतरी से लेके संतरी तक उनका सोझा सभे मुड़ी नवा रहल बा, त मुलाज़िम लोग कवने खेत के मुरई बा लोग। ई त जुग-जुग से चलल आ रहल बा – “खेत खइलस गदहा, मार खाई जोलहा”। कुछ लोग धरती पर खाली नुक्ता-चीनी करे आवेलन, एहू जुग मे कुछ लोग आइल बा।
          
       पीयर पीपर पहिर के चमके वालन के ऊपर कहियों बाँस-बल्ली घहरा सकेले, एकरो खातिकुछ कहल सुनल गइल बा। बेनामी संपत्ति त सुरसा लेखा समाज के रोजे गटक रहल बिया। एकरो दवाई कइल ढेर जरूरी हो गइल बा। तभिए आम मनई अपना खाति छत बदे सोचियों पाई। बाकि ई कुल्हि तभिए संभव हो पाई, जब एकरा के   इंस्पेक्टर राज के नजर न लगो, एकरो पर धियान देवे के जरूरत बा। सरकार के ई कुल्हि बात पर बेगार चुकले धियान देवे के परी। एकरा खाति समुचित परबन्ध करल आ ओकरा पालन करावल जरूरी ह । अब गवें गवें 2019 के गोटी लोग बिछावे मे जुट चुकल बा। एही के झलक संसद के अविश्वास प्रस्ताव के बहस के बेरा लउकल। झूठ-साँच, तिगड़म के संगे अइसनों हरकत होखी जवना से आम मनई के सिर झुक जाई। पक्ष अपने काम के गिनाई आ विपक्ष आरोप के पुलिंदा, मने जनता के फेर से भरमावे के सागरी उपाय दूनों ओरी से होखी। जवने भ्रष्टाचार के खतम करे के बात से शुरू भइल 2014 मे सरकार, केतना सफल भइल भा असफल भइल, एकरो आकलन होखे के चाही। आम लोग खाति आजों भ्रष्टाचार जस के तस बा। एकर बानगी कवनो विभाग मे जा के देखल जा सकेला। भाषाई सवाल आजों अनुत्तरित बा। भोजपुरी भाषा आजों अपने सनमान के राह देख रहल बा। आठवीं अनुसूची भोजपुरी ला आजों सपना बा। महगाई आजो जस के तस बा,किसान आजो आत्महत्या कर रहल बा। शिक्षा एतनी महगा हो गइल बा कि का काहल जाव। धरम-संप्रदाय,जाति के खेला गहिराह हो रहल बा। कहे के मतलब ई बा कि ढेर आफत मुँह बावले ठाढ़ बाड़ी सन। एहनी से पार पावल जरूरी बा,ना त देश आ समाज दूनों क नीमन होखल मोसकिल बा।

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
       

Thursday, June 7, 2018

अंतरात्मा के आवाज

का जमाना आ गयो भाया, कुरसी के लड़ाई मे साँच के बलि दिया गइल। सत्यमेव जयते लिखलका पत्थरवा लागत बा कवनो बाढ़ मे दहा गइल। तबे नु एकर परिभाषा घरी घरी बदल रहल बा। पहिले दिन कुछ आउर आ दोसरा दिन कुछ आउर। अपना देश मे एकर बरियार सुविधा बा जवन कबों केकरो आवाज के अंतरात्मा के आवाज मे पलट देवेले। बाकि एह आवाज के निकाले खाति ढेर पापड़ बेले के पड़ेला। पापड़ बेल देले भर से कबों काम ना चले, त ओह पर कुछ छिड़के के पड़ेला,घाम देखावे के पड़ेला, आ कबों कबों आँचो देखावे के परि जाला। बाकि अबरी दाल भात मे मुसरचंद आ गइले, एही से अंतरात्मा के आवाज ना निकल पावल, नरेटी मे अंटकि गइल। कब निकली एकर कवनों पता नइखे, भा अंटकले रहि जाई, इहो कहल ना जा सकेला। केरा आ बइर के संगत कब ले चल पाई, ई त समय बताई। बाढ़ मे दहा जाये के डरे कीरा आ नेउर एकही डाढ़ पर लउके लन बाकि असर घटते एक दोसरा के जिनगी का पाछे परि जालें। अबही त हँसी हँसी के मुसकियाए आ सेल्फियाए के समय ह, सभे एकर भरपूर लाभ उठा रहल ह। ढेर लोग त जलसा मना रहल बा। 
जोगाड़ तंत्र के जमाने मे इहो ना बुझाला कि के जीतल भा के हारल। कुछ लोग एहमे जीतियों के हार जाला आ कुछ लोग हारियों के जीत जाला। अइसने मे लंगूर के हाथे हूर पड़िए जाला। कबों कबों ओकरो भाग जाग जाला जेकर “न गाँव मे घर बा आ ना सिवाने खेत”। भलही उ कठपुतरी लेखा ता थाइया ता थाइया पर ठुमका लगावत लगावत समय काट लेत होखे। बेचारी जनता बेच्चारी बनि के तमासा देखत रहि जाले। ओकरे हाथे त उहे आवेला, अरे मालूम नइखे का “बाबाजी का ठुल्लु”। एह बेचारी जनता के अंतरात्मा के आवाजो केकरो ना सुनाला, भा केहू सुनलो ना पसन करेला। एगो मंथरा के चाल से 3 गो राजा लोग दुखी भइल, दू लोग त दुनिया छोड़ गइल, जवने कालखंड मे तीन-तीन मंथरा एकही जगह एकही समय पर जुट जाँय, फेर त तूफान के अंदाजा लगावल जा सकेला। लइकई मे सुनले रहनी सन कि जहवाँ दू गो मेहरारू भा लइकी मुड़ी सटा के बतीसी फार मुसुकी मारत होखें, उहाँ अनहोनी होखे से दइयो ना बचा सकेले, मनई के का औकात। 
पुलुई मट्टी के बनावल ठीहा पर चढ़ि के लाठी भांजल, नोनियाइल भीति के भहराइल कवनो अनहोनी ना कहाला। ई त सभे के पहिलही से मालूम रहेला कि का होखे वाला बा आ का होई। बाकि एह हहकारा से घोड़ा बेंच के सुतल लोगन के नीन खुलि जाये के चाही। सपना मे हमार आधा, हमार आधा के तिगड़म जोड़ले से हर घरी ना जुड़ पावे। खटिया के नीचे उतरे के परेला, चले –फिरे के परेला आ कुछ कामो करे के परेला, जवन लोगन के लउके।ढेर बिसवासो लोगन के शाइनिंग इंडिया के दरसन करा देवेला। दू –चार दिन मे हथोरी मे सरसों जमा के, ओकरा फूलत-फरत देखला के सोच “मुंगेरी लाल के सपना” से बेसी ना कहल जाई। सुने मे आवता कि एक जाने के कवनो तुरुप के ईक्का मिल गइल बाटे। एह घरी ओही के चमकावे मे जुटल बाड़े। कुछ लोग कहता कि सत्ताईस के तीन भाग मे बाटें के खेला होखी। मने सताइस के तीन भाग मे बाँटि के अगिला बेर लड़ाई मे उतरिहें। भगवान भला करे, इनहूँ के अंतरात्मा से कुछ आवाज निकलो। 

जयशंकर प्रसाद द्विवेदी                        

सभे कुछ माफ आ ना त पूरा साफ .................?


का जमाना आ गयो भाया , सबही  के जीभ मे खजुली उपरियाए लागल बा। तनि हई न देखी ! अब चलनियों बउवा रहल बानी सन आ कुछहू बोल – बोल के अतिराइल घूमत बानी सन। सबही कुछ ना कुछ बोले खाति मुँह बवले बा, भलही उनुका खुललके मुँह मे माछी पइठ जास। फेर त खोंखत-खोंखत सांस उपरिये नु जाई । जेकरे अपने मेहरी के सोझे बकार न फूटत होखस, उहो लामा-लामा फेंक रहल बा। अपना के लमहर बोलवाइया बूझ रहल बा, भलही उ केहू आउर के लिखल होखस, उहो चटकारा ले-  ले के आ मुड़ी झार झार के बोल रहल बा। उ लोग राजस्थान के आन्ही मे बालू मे मुड़ी गोत के बड़का  बकता के पोछिंडा लेखा ओकर मुक़ाबला करे के दंभ बान्ह रहल बाड़ें ।ओहनी के मालूम बा कि इहवाँ कुछहू बोलला के कवनों मतलब नइखे, कतों कुछ निकलतों होखे त दोसरा पर बला टाल के आपन छुट्टी बूझ लेला लोग। ओइसहू इहवाँ बस बोलला से मतलब बा, करे के त कुछ हइए नइखे । फेर कुछों बोलत रहीं महाराज ! का फरक पड़े वाला बा। 70 बरिस मे जहवाँ के सोच ना बदलल होखे ,उहवाँ मनई बदल जाई, ई संभव नइखे। इहे त लोकतन्त्र के सुघरई ह, कुछहू बोल के आ फेर माफी माँग ल, हो गइल काम । अरे भइया ! ई लोकतन्त्र ह, इहवाँ सभे कुछ माफ आ ना त पूरा साफ। आइसन लोग दोसरा पर अछरंग लगा के फूट लेवेला ।

            हमरा त आज ले ई बुझाइल कि जे गरीबन के नांव के नेतागिरी करत बा, उ भला हेतना अमीर कइसे हो गइल ? गरीबवा बेचारा आउर गरीब हो गइलन सन। फलनवाँ जात पिछड़ल बा कहि कहि के अपने धनकुबेर बनल लोग चारा,कोइला कुछहू ना छोड़ेला। बाकि उनका जात के लोग सोचलो ना चाहेला , न देखबे करेला ,समझला के त दूर के बात बा । केहू हमरा आ के इ समझावो कि मड़ई से महल के जतरा 10 बरिस मे , कइसे होखेला । बेगर कवनों नोकरी भा धंधा के करोड़पति बने के लूर का हवे भाई, केहू बताओ। बुद्धू बकसवा पर आके जे जे कुछहू आ केनियों फेंकत रहेला, ओहू लोग से पूछ रहल बानी। फेर एह बड़ –बड़ स्कूल आ विश्व विद्यालयन के जरूरत का बा ?जब कुल बुद्धि आ दिमाग अनपढ़ के लग्गे होला,त फेर पढ़े लिखे क टंटा के जरूरत का ह ? मनराखन पांडे बनि के देस आ समाज तूरल जा सकेला, जोरल ना। साँच के सोझा लियावे के बा, आपन भविस मति देखीं, बस सोझा काम करे मे मन लगाईं । बेताज बादशाह बने से कोई ना रोक सके। जबरी बनब त लोग बहरिया देही। आज लोगन के राउर साथ पसंद बा कि ना , झूठिया देखावत रहीं आ सोची कि लोग उहे देख रहल बा , त ई सोझ भरम ह । जनता के मरम बूझी । दिनही मे सपनाए वाला इतिहास ना लिखे ।  जागीं ,कुछ ठोस करी फेर ध्रुव तारा बने के सोची । आलू के फैक्टरी लगा के केहू ध्रुवतारा ना बन पावेला ।  
            आजु के समय मे जेकरे जर के पते नइखे, उहो बरगदे बनल चाहता। कइसे बनबा भाई ? पहिले बरगद वाला गुन त अपना मे हेर लs, कोने अँतरे जरि मनी होखे त ।मुंगेरी लाल लेखा सपनाइले से का होई । एक दोसरा के चरित्र पर कनई बीगले से स्तर मे कवनों सितार न जड़ा जाई । आजु के पहिले हर चीजन से खेलवाड़ भइल बा, जवन आज सभे के दिख रहल बा । राज करे खाति सझुराइल बतियों जान बूझ के अझुरावल गइल बा । झूठ के थुन्ही आ बड़ेर पर राखल पलानी के दिन अंधड़ के रोक पाई, ज़ोर के झझोर लगते उधिया जाई ।  

      गज़ब बा भाई, मलिकार के खुस करेला उनके अवतारी बना रहल बा लोग । खाली बोलिए के ना चुपाता लोग, ओकर बड़का-बड़का बैनर टाँगते घूम रहल बा लोग । नयकी बहुरिया के चाम –चूम त होखबे करेला । होइयो रहल बा, उनुके पाँव पड़ला के गुणगान सगरों सुनाता । भगवान भला करिहें, अइसन लोगन के जेकरे आँखि पर हरियरकी मोटकी पट्टी बन्हाइल बा । चमचा – बेलचा लोग के ई जनमजात गुन होखेला अरधना, पूरा मन लगा के कर रहल बा लो । एह देश आ इहाँ के रहवइयन के का काहल जाव, कतहूँ मुड़ी पटके लागेला, अइसन लो के केहुवो समझा ना सकत । मंतरी का संतरी का, मौलवी का फकीर का, ओझा-गुनिया का । बाबा लोग के त बाते निराली ह, आज कल सबज़ी रोप – बो के प्रवचन दे रहल बा लोग ।

      एगो आउर बाबा बाड़ें जे सफाई अभियान चला रहल बाड़ें। कुछ लोग – बाग, अरे दोसरका बाबा के गोल वाला लोग कह रहल बा कि हमनी के एनही ठीक बानी सन। बताईं भला, कुकुरो अपना पोंछी से झार-झूर के बइठे लन स, बाकि ई लोग के त लोटे के आदत नु बा । कतहूँ लोट जाई लोग। कुछहु खाति लोट जाई लोग । सगरों बस पिचिर–पिचिर करत रही भा इंजन लेखा धुआं छोड़त रही। ई कूल्हि देख के एगो नैतिकता नाँव के चिरई बेचारी जवार छोड़ के केने चल गइल, केकरो पता नइखे। गरमी होखे भा जाड़ा चिरई चुरमुन के पीये खाति पानी त चहबे करेला नु, जब पानी पीये जोग ना होखे त, चिरई-चुरमुन बेचारा कहाँ जइहन ?

      एह देश के राजधानी त राजधानी, ओकरे अगल-बगल देख लेही भा कवनो मे गलती से नहा लेही भा एक चुरुवा पानी पी लेही, फेर AIMS भा APOLO मे शरण मिलल पक्का बा। कतों हम पढ़ले रहनी कि बादशाह अकबर रोज एक लोटा यमुना जी के पानी पियत रहे, आज होखते त बुझात। पहिले त एकही गो राजा रहत रहलें, त पानी पीये जोग रहे आ अब 565 गो रहत बाड़ें। कूल्हि मिलन के रोज एक – एक लोटा यमुना जी के पानी पियवले के दरकार बा। जमुना जी त जमुना जी दिल्लियो साफ न हो जाय तब कहेम। सफाई के काम मे जेतना लोग लागे सबके एक लोटा रोज पानी पियाई, फेर देखी जेतना करिया उज्जर नदी सफाई योजना के बा, सब बहरियाए लागी।               
                    
      अब तनि हरिनंदी यानि हिंडन के बात कर लीहल जाव, इ कुल देख-दाख के आउर सरकार भा अधिकारी लोगन के करतूत से हिंडन (हरनंदी) नदी नाला बन चुकल बा। जब कवनो नदी पूरा शहर के मलबा अपने पेट मे बरियाई लीही त इहे होखी। हिंडन नदी कबों गाजियाबाद शहर के मोक्षदायिनी रहल बाड़ी, ओहू मे एगो ऐतिहासिक नदी, तबों हेतना अनदेखी। जनम, मिरतुक से लेके पूजा-फरा तक ले जेकरे घाट आउर पानी के परयोग होत रहल होखे, ओकर पानी आज हाथो धोवे लायक नइखे बाचल।एह घरी विसेश्रवा ऋषि रहतें त का करतें।
            लगले हाथ आजु के देश हो रहल चुनाव आउर ओकरे नतीजन पर नजर डालत चले के, इहवों जेकर लाठी ओही भैंस बिया। दोसर केहू त बस टुकुर टिकुर ताकते रह जात बा । गोवा, मेघालय, त्रिपुरा आ अब कर्नाटक, फिरो देखी सभे नाटक। आपन आपन तरक आपन आपन तरकस। कवने नैतिकता के बात जोहत ह एह देश के लोग आ केकरा से। जइसन नागनाथ, ओइसे साँपनाथ, आउर कुल्हि नाथन के बातों बेमानी बा। हाँका लोग लोकतन्त्र के भैंस मातिन, देत रहा लोग दुहाई ओही लोकतन्त्र के आ राजभवन के विवेक के। राज भवन मे जवन विवेक बसल बा, उहो तहरे सभे के बसावल बा।
      एही महिनवा मे मने मई महिना (5 मई 1818) एगो दार्शनिक आउर समाजवाद के सूत्र देवे वाले कार्लमार्क्स के जनम दिन आनि कि 200वी जयंती सगरी दुनिया मे मनल। उनुका दर्शन मे से एह घरी सड़ांध आ रहल बा, काहें कि उ दर्शन फेल हो चुकल बा। जब एह दर्शन पर आधारित सरकार दुनियाँ के एगो कोना मे आइल रहे जवना के बोल्शेविक क्रान्ति के नाम से जानल जाला, उहवाँ अधिनायकवाद के बोलबाला हो गइल रहे आ सरकार बिरोधीयन के खूब हत्या भइल रहे। शायद हिटलर लेखा लेलिन, स्टालिन आ माओ मानवता के लमहर दुसमन बन गइल लोग । एह मे सर्वहारा वर्ग के बेसी दमन भइल । बाकि भारत मे अजुवो एह विचारधारा के कुछ लोग ढो रहल बा, ई लोग के भारत के अखंडता फूटलो आँख ना सोहाला । ओकरा चक्कर मे एह विचार धारा वाला लोग देश द्रोह के स्तर तक पहुँच चुकल बा । जेकर बानगी इहाँ के लोग कई बेर देश चुकल बा । जेएनयू के घटना ओकर ताजा उदाहरण बा ।
      चलत चलत अपने देश के उच्च शिक्षा पर एगो सरसरी नजर डालल जरूरी बुझाता। अइसने एगो उच्च शिक्षा संस्थान के जिकिर तनिका पहिले आइल ह।अइसन कुल्हि संस्थान आन्हर कुइयाँ लेखा बुझालें भा चक्रव्यूह लेखा बा। जवना मे जाये के रहता त बा बाकि निकले के रहता ....? इहवाँ के स्थिति थोड़ ढेर “सभे कुछ माफ आ ना त जिनगी पूरा साफ” के ढर्रे पर चलत रहेले भा कबों कबों ठहरल बुझाले। कबों कबों त इहों बुझाला कि डिगरी बाटें वाला कारख़ाना खुलल बा जवन केंद्र आ राज्य सरकारन के संरक्षण मे चल रहल बा।                          
           
·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी           


Tuesday, May 8, 2018

का चाही --- का मिल रहल बा ?


का जमाना आ गयो भाया, संस्कार आ इंसानियत बुझता देश छोड़ कतौ पराय गइल बाटे । अब त भोरे भोरे अखबारो देखे मे डर लागता । रोजे 2-4 गो कवनो न कवनो अइसन खबर देखा जात बाड़ी सन , जवने से रोवाँ झरझरा जाता । आँख लोरा जात बा । आजु के समाज से घिन होखे लागत बा । बिसवास के बात साँचो बेमानी हो गइल बाटे । का माई , का बाबू , का हित – नात केकरो पर बिसवास करे जोग ना रह गइल बा । जवने समाज मे जब अपने माई-बाबू जब अपने बिटिया के अस्मत के सौदा करे लागल बा, त दोसरा पर कइसन बिसवास ? जहवाँ महतारी लोग अपने अपने बेटी – बहू के इज्जत खाति जान दे देत रहे, उहवों आज कुछो कहे लायक बाचल नइखे । समाज हर दिन गरत मे जा रहल बा । केहरो असरा के कवनो किरिन नइखे देखात । समाज , देश , राजनीति , राजनेता सभे आदमियत भुला गइल बाड़े । का राजा , का परजा केकरा के दोष दीहल जाव । मनई आज खाली आ खाली पइसा के भूख से बेकल बा , ओकरा खाति कुछों करे मे, केतनों गरत मे गिरे मे ओकरा कवनो शरम नइखे । राजनीति करे वाला लोग त अंगरेजन के नीति पर चल रहल बाटें , “बाटों और राज करो” आ सभे के अझुरा के राखे मे उनके उनकर राजनीति के दोकान चलत देखात बा । उ लोग इहे करे मे दिन रात लागल बा । जात - पात , धरम के लड़ाई अपने चरम पर बा । 

            समाज आउर मनई के सोच केतना गिर चुकल बा , एकरा कहे ,सुने मे शरम लगता । एह सब खाति अलग अलग लोग अलग अलग तरह से परिभाषा गढ़ रहल बाड़ें । बाकि खाली परिभाषा गढ़ लिहले से भा एकर दोष केहू दोसरा पर लगा दीहले से त समाज के ई बुराई दूर ना होखी । आजू के जरूरत ई बाटे कि समाज से , देश से ई बुराई दूर होखों । समाज के ई भाग अपना के मजबूर ना सुरक्षित महसूस करे । बेगर मेहरारून के ई सृष्टि के कल्पनों ना कइल जा सकेले । अइसना मे सभ्य आ सुरक्षित समाज के बात बेमानी बा । वेदकाल से विआह के बेरा एगो असीस दियात रहे , जवन वेद मे लिखलो बा –

“दशाश्याम पुत्राना देहि,पति मेकमेकादशम कुधि”

      जवन लइकी अपने जिनगी मे अपने संतान के संगही अपने खनिहार के माई के भूमिका मे आवे असीस के संगे आपन जिनगी शुरू करेले, ओकरा प्रति समाज काहें एतना निष्ठुर हो जाला , सोच के विषय बा । ओह आधी आबादी के संगे समाज एतना निरदई हो गइल बा, ओकरे सम्मान के एतना बाउर बना रहल बा , जवने से आज पूरा समाज के मुड़ी नीचे हो गइल बा । कठुआ मे जवन कुछ भइल भा उन्नाव मे  - चिंता के बात त ई बा कि एह तरह के कुकरम आ जघिन अपराध के कुछ लोग आ मीडिया के एगो खास हिस्सा साम्प्रदायिक रंग देवे में लागल बा। आपन राजनीतिक रोटी सेंके मे लोग समाज के कवने ओरी लेके जा रहल बा, उहो लोग के एकर पता नइखे । अब त हमरा संस्कृत के ई उक्ति गलत बुझाले –

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”

      इहाँ त देवता लोग के झाँको ना आवत बा । इहाँ त “रमन्ते सर्वत्र राक्षसा” देखाई दे रहल बाड़े । आज कतौ केहू महिला लोग खाति सनमान भूलियो के देखावत होखी कि ना , सोचे के पड़ी ।

      समाज मे कई गो विचार धारा हरमेसा रहेनी सन, अजुवों बा । समाज क रूप काहें भइल, ई विचार के जोग बात बाटे । समय समय विमर्श होत रहे के चाही, उ हो रहल बा । नारी आंदोलन , नारी मुक्ति , नारी विमर्श अइसन कइगों नांव हो सकेला भा होबो करी । बाकि एह सब के मतलब सब अपना हिसाब से लगावत आ रहल बा , अपना हिसाब से परिभाषों गढ़ले बा भा अजुवों गढ़ रहल बा । कवनो एगो कारन ना दीहल जा सकेला एह स्थिति खाति । ढेर कारन बाटे जवन आज समाज के एह स्थिति मे लिया के छोड़ देले बा । आधुनिकता, स्वतन्त्रता , मुक्ति , फिलिम, टीवी,खुलापन, एकाकी परिवार, धन लिप्सा , भोग के प्रवित्ति , अवसाद आउर बहुत कुछ सभे के सोचे के मजबूर क रहल बा ।

            कबों-कबों त ई लागेला कि समाज मे फेर से आदिम प्रवृत्ति काहें ? कहीं ई कुल्हि अनुशासन के कमी के कारन त नइखे ? बाकि अनुशासन के मतलब इहाँ केकरो बंधुवा बना के राखे से नइखे । इहाँ अनुशासन के मतलब सामाजिक ताना – बाना के हिसाब से चलला के बा । का अब एकरो के माने मे कवनो समस्या बा ? मानवतावादी लोगन के हो सकेला बाकि होखे के चाही का ? नारी मुक्ति के संचालकन के हो सकेला बाकि होखे के चाही का ? हमरा अभिओ ले ना बुझाइल कि नारी के मुक्ति केकरा से , पिता से , पुत्र से भा पति से ? कई गो विचारक लोग नारी मुक्ति के मतलब ई बतावेला कि नारी के अपने मन आ देह पर नारी के ही अधिकार होखे के चाही । ठीक ह , होखे के चाही बाकि कहीं ई सोच नारी सत्ता भा पुरुष सत्ता के विनाश के ओरी समाज के ढकेले के कवनो जोजना त नइखे ? कवनो दोसर सभ्यता भारतीय सभ्यता मे जहर त बिखेरे मे ना लगल बा ? कवनो स्वतन्त्रता के मतलब ई होला कि ओहसे दोसरा के स्वतन्त्रता प्रभावित न होखे । बाकि इहाँ सभे के खाली अपने स्वतन्त्रता से मतलब बा, जवना के नीमन त ना कहल जा सकेला ।

      हमरा त ई लागेला कि आज जरूरत ई बा कि पहिले के तरे जइसे कवनो गाँव मे केकरो घरे केहू के लइकी के बिआह होखे, उ ओह गाँव के सभेके बेटी आ बहिन के बिआह बुझाव । सभे एक्के ऊर्जा से ओकरा के निभावे मे लाग जाय । चच्चा , कक्का , दद्दा नीयर नाता जात धरम से परे रहल । गाँव के लइकी भर भर गाँव के बहिन, बेटी रहस । मतलब ई कि समाज के ओही ताना बाना के फेर से जियावे के आज जरूरत बुझात बाटे । एक घरे के बुढ़वा के डर गाँव भर मानत रहे , आँखि मे सरम रहे । कवनो घरे के बड़ केहू के लइका भा लइकी के बाउर होत देख ना सके, ओकरा समझावे , डांटे , फटकारे से ना झिझके । अपनत्व के पराकाष्ठा के सब बुझे आ निभावे । कवनो बिअहुता लइकी के गाँव मे ओकरे नइहर से केहू आ जाव, त ओह लइकी के उ अपने बाप – भाई नीयर प्रिय लागे । नेह छोह के ओही गठरी के आजो पहिले से जादा जरूरत बा । दादा – दादी भा नाना – नानी वाले संस्कार के जरूरत बा । कहे के मतलब ई कि फेर से सौ दुख सहलों पड़े , त ओकरा के भुला के फेर से संयुक्त परिवार के जरूरत बा । आज नाही त काल्ह एकरा के अपनावही मे समाज के भला बा ।   

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी  
          
       

कउवा से कबेलवे चलाक


का जमाना आ गयो भाया , पहिले त अंडा चूजा के सीख देत रहे बाकि अब त बापे के सीख देवे लागल बिया । तकनीक के जमाना नु बा , केनियों आड़ा तिरछा देखि के धार फूटि रहल बिया । चाहे ओकरा से गाँव तबाह होखे भा देश । पानी के रेला त रेला ह , ओकरा के केकरो पहिचान नइखे । जब पानी के फुफुकारत धार चल देवेले त ओहमे बड़ बड़ पेड़ , पहाड़ , गाँव – गिराव सभे के अपने लय मे नाधि देले । मनई से लेके जीव - जंत तक तबाह हो जालें , बाकि गिद्धन के मउज हो जाला । महीनन के छुधा तिरपित करे के जोगाड़ हो जाला । इहे दुनिया ह , एक के दुख दोसरा ला सुख हो जाला ।

      आज बिहनही  से मन बउवाइल ह , केकरा नीमन मानी आ केकरा के बाउर । सभे गिरोह बना नटई फार रहल बा । जवन बाप अपने बेतवा खाति आपन भविष्य दाँव पर लगा दहलेस , उहे बेतवा बाप के ककहरा पढ़ा रहल बा । जवने काम से बाजार के कमर टूट गइल ओकरा के गेमचेंजर बता रहल बा । सोझवा मनई के लूटे के रोज एगो नाया जोगाड़ जोड़ रहल बा । अबहिन ले लो अच्छा दिन जोहत बाड़े , अब केहु क़हत बा कि अर्थब्यवस्था मे सुधार आ रहल बा । बाकि राउर समाचार पत्र देखीं , जी डी पी गिर रहल बा । चुहानी के समान महँग हो गइल आ लोग कह रहल बा कि जी एस टी खुसिहाली लेके आई । अपने दिन से पुछे पराये दिल के हाल , किसान मरि रहल बाड़े , गरीब आउर गरीब भइल जात बाड़े , भूखे मरे के नउबत आ गइल बा । नेता लो अबो चुग्गा दाल रहल बा ।

      असल मे हवाई लो के हाथ मे जमीन से जुड़ल काम जब आ जाला , अइसने कुछ देखे के मिलेला । अरे एक बेरी बजार मे आईं आ देखीं कि लो का क रहल बा , फेर बुझा जाई । 20 बटे 20 के वातानुकूलित कमरा मे बइठ के बकैती मति झारीं । बिकास –विकास सुनि सुनि के कान पाक गइल । विकास त लउकल बाकि नेतन आ उनके अपनन के दुवारे । पूरे क पूरा खानदान तिरपित । एगो जगहा आउर विकास लउकल , बाबा लोगन के दुवरे । ई कुल्हि देखि के तुलसी बाबा के चौपाई मन परि गइल –

कोउ नृप होय हमे का हानी , चेरी छोड़ कब होबे रानी ।

 गरीबन ला ई बतिया पहिलहूँ  साँच रहे , अजुवों साँच बा । एकहु गो नीमन बात त देखात , कुल्हि गुड़ गोबर , एकही मे एक सउनात , सड़त - गलत , बहत – बिलात छिछिया रहल बा ।
 कबों – कबों त ई लगेला कि चोरन के बस्ती मे खजाना रखाइल, चौकीदार ओही बस्ती के , राम भला करिहें । कवनो नदी मे एगो मंगर आ जाला , त लोग ओमे नहाइल छोड़ देला । इहाँ त मछरी लेखा मंगर बाड़े सन । हर बात ला जज़िया कर लगा लगा के सरकार आपन भलही खजाना भर के खुस होले बाकि 2019 अब ढेर दूर नइखे । अंकड़ के बोल के बिलाए मे ढेर देर ना लागेला । हमरा त बुझात बा –

जब नाश मनुज पर छाता है , पहले विवेक मर जाता है ।

      कहीं इहे त ना साँच होए जा रहल बा । विकास त भइया बिकसित के हो रहल बा । 1 बरीस मे उद्योगपतिन के धन दूना – तीना , 5 बरीस मे नेतन के धन 10 गुना आ जे 10 बरीस डाइबरी क रहल बा , उ आजों डाइबरे बा । कौशल विकास के टरेनिंग मने गोइठा मे घीव सोखावल , बन्हा उद्घाटन के पहिलही बहा गइल , देखीं जा विकास भा सत्यानाश । इहे कुल्हि सोचत रहनी ह कि एही मे लइकई मे सुनल एगो बात मन परि गइल ह ।  जब इया हमनी इस्कुले जाये के बेरा कहें कि ए बचवा बचि के जईहा । त हम बोल देही , ईया से कि हमरा के मालूम ह , रोज रोज एकही बात । तब खिसिया के ईया कहस – देखा न दुलहिन , अब त “कउवा से कबेलवे चलाक” हो गइल बाड़े सन ।

·         जयशंकर प्रसाद द्विवेदी